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________________ हमारी यह तकलीफ हैं : थोड़ा करके छोड़ देते हैं । धर्मक्रियामें सातत्य नहीं रहता । सातत्य के बिना सिद्धि कैसी ? . सातत्यं सिद्धिदायकम् । ___ कभी-कभी साधक एकांगी बनते भी तकलीफ खड़ी हो सकती हैं । कभी कोई ज्ञानमें पड़ता हैं तो क्रिया छोड़ देता हैं । ध्यानमें डूबता हैं तो गुरु को छोड़ देता हैं । ऐसे एकांगी बनने से भी सफलता नहीं ही मिलती ।। आत्मशुद्धि बढती जाये उसकी निशानी यह हैं : चित्तमें प्रसन्नता बढती जाती हैं, जीवनमें मधुरता बढती जाती हैं । इस धृष्ट आत्मा को बार बार समझायेंगे तो ही ठिकाना पड़ेगा। नहीं तो जल्दी पीघल जाये ऐसा यह जीव नहीं हैं । खुराक आप बराबर चबाओ तो शक्ति मिलती हैं । मुझे स्वयं को वापरते एक घण्टा लगता हैं । तत्त्वज्ञान को भी इस तरह चबाओ । अर्थात् चिंतन करो । तो ही अंदर भावित बनेगा, फिर आत्मा प्रतिक्षण याद आयेगी । आख की किंमत ज्यादा या देखनेवाली आत्मा की ? पैर की किंमत ज्यादा या चलनेवाली आत्मा की ? कान की किंमत ज्यादा या सुननेवाली आत्मा की ? जिसके कारण यह पूरी बारात निकली हैं, उस दुल्हे को (आत्मा को) हम भूल नहीं गये हैं न ? * यहाँ परदर्शनीय गोपेन्द्र परिव्राजक के शब्द अंकित किये हैं। गोपेन्द्र परिव्राजक को 'भगवद् गोपेन्द्रेण' कहकर हरिभद्रसूरिजीने सन्मान दिया हैं । कितनी व्यापक दृष्टि हैं ? कितनी गुणदृष्टि ? गोपेन्द्रने कहा हैं : जहाँ तक प्रकृति का अधिकार रुके नहीं वहाँ तक धृति, श्रद्धा, प्रशमभाव, तत्त्व-जिज्ञासा, विज्ञप्ति (बोधि) इत्यादि गुण प्रकट नहीं होते । शायद प्रकट हुए दिखाई दें तो वह मात्र आभास समझें । असली नहीं, नकली गुण समझें ।। ___अभय से धृति, चक्षु से श्रद्धा, मार्ग से प्रशमभाव, शरण से तत्त्व-जिज्ञासा और विज्ञप्ति से बोधि लेने हैं । मात्र शब्दमें अंतर हैं । अभय, चक्षु, मार्ग, शरण और बोधि के दान से ही इसे उपयोगसंपदा कही गई हैं । [१९८000oooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि- ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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