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________________ पू. भुवनभानुसूरिजी के साथ, सुरत, वि.सं. २०४८ २७-१०-२०००, शुक्रवार कार्तिक कृष्णा ३० - ( २० ) धम्मदयाणं । * साक्षात् भगवान मिल भी जाये तो भी क्या हुआ ? भगवान को पहचानने के लिये आँख चाहिए । ३६३ पाखंडी भी भगवान को सुनते हैं, पर सुनने के बाद कहते हैं क्या ? 'यह तो आडंबर हैं, आडंबर ! आडंबर से प्रभावित मत होना ।' गोशालक ऐसा ही कहता था न ? महावीर को मैं पहले से पहचानता हूं । मैं जब साथमें था तब वह सच्चा साधक था । अब तो वातावरण तद्दन बदल चूका हैं, न साधना रही हैं, न तपश्चर्या ! अब तो देवांगनाएं नाचती हैं, चामर ढोले जाते हैं ! सिंहासन पर बैठता हैं । वीतरागी को ऐसा ठाठ-बाठ कैसा ? भगवान मिलने के बाद भी भगवान को पहचाननेवाली आंख पास में न हो तो कुछ मिलेगा नहीं । इसलिए ही वीरविजयजी कहते हैं : योगावंचक प्राणिया, फल लेतां रीझे; पुष्करावर्तना मेघमां, मगशेल न भींजे । भगवान की देशना सुनते योगावंचक आत्मा को ही आनंद २०० 0000 कहे कलापूर्णसूरि -
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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