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अभय आदि पांचों उत्तरोत्तर फल के रूपमें मिलते हैं । अर्थात् अभय मिला उसे चक्षु मिलते हैं । चक्षु मिले उसे ही मार्ग मिलता हैं। मार्ग मिला उसे ही शरण मिलती हैं । शरण मिलती हैं उसे ही बोधि मिलता हैं । अभय न मिला उसे चक्षु नहीं ही मिलते । चक्षु नहीं मिले उसे मार्ग नहीं मिलता । ऐसा उत्तरोत्तर समझें । अभय ही चक्षु का, चक्षु ही मार्ग का, मार्ग ही शरण का, शरण ही बोधि का कारण बनता हैं ।
'कह्यु कलापूर्णसूरिए' पुस्तक मिली । पुस्तक हाथमें लेते ही उसकी आकर्षक सजावट और विशेष तो सचोट, सरल, गंभीर, अलौकिक लेखन-श्रेणि देखकर पूरी पुस्तक एक साथ पढ लेने का मन हो जाता हैं।
पू. आचार्यदेवकी वाचनाओ - व्याख्यानादि का अद्भुत सार, आपश्रीने जो अपनी कुशलता से लिखा हैं वह बहुत ही अद्भुत अप्रतिम हैं । आपकी यह पुस्तक मिलेनीयम रेकार्ड प्राप्त करे यही शुभेच्छा ।
- जतिन, निकुंज
बरोड़ा हा
(१९६wwwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ४)