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________________ * अजैन आत्मचिंतक अवधूत आचार्यने कहा हैं : भगवान के अनुग्रह के बिना तत्त्वशुश्रूषा वगैरह बुद्धि के गुण प्रकट नहीं होते । पानी, दूध और अमृत जैसा ज्ञान उससे प्रकट नहीं होता। भगवान की कृपा के बिना धर्म सुनने की इच्छा, नींद लाने के लिए राजा कथा सुनता हैं उसके जैसी हैं । विषय-तृष्णा को दूर करनेवाला ज्ञान कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से ही जन्म लेता हैं । अभक्ष्य (गोमांस) अस्पृश्य (चांडाल स्पर्श) की तरह वैसा ज्ञान (विषय-तृष्णा को बढानेवाला ज्ञान) अज्ञान ही कहा जाता हैं । भगवान की शरणागति से ही सच्चा ज्ञान मिलता हैं । सच्चे ज्ञान की निशानी यह हैं : विषय विष जैसे लगते हैं । अविरति गहरी खाई हैं । यहां सिद्धाचल पर रामपोल के पास गहरी खाई हैं न ? देखते ही कैसा डर लगता हैं ? शरणागति का अर्थ यह हैं : भगवान मेरे उपर करुणावृष्टि कर रहे हैं, ऐसी अनुभूति हो । शरणागत के हृदयमें मैत्री की मधुरता होती हैं, करुणा की कोमलता होती हैं, प्रमोद का परमानंद होता हैं, माध्यस्थ्य की महक होती हैं। इससे प्रतीति होती हैं : मेरे उपर भगवान कृपा बरसा रहे हैं। * भगवान को कुछ अर्पण करने से ही भगवान की तरफ से कृपा मिलती हैं । कन्या ससुराल जाकर शरणागति स्वीकारती हैं तो उसे पति की तरफ से सब कुछ मिलता हैं । पति को वह इतनी समर्पित हो जाती हैं कि अपने संतान के पीछे भी वह पति का ही नाम लगाती हैं । भक्त भगवान की प्रीतिमें स्वयं का नाम, भक्तिमें स्वयं का रूप, वचनमें स्वयं का हृदय और असंगमें स्वयं का आत्मद्रव्य भगवानमें मिला देता हैं । भगवान को आप संपूर्ण समर्पित बने उसी समय प्रभु आपको स्वयं का संपूर्ण स्वरूप समर्पित कर देते हैं ।। कोठीमें रहे हुए बीजमें वृक्ष प्रकट हो नहीं सकता । अशरणागत आत्मामें प्रभु कभी प्रकट नहीं हो सकते । (१९४ 0wwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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