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________________ शशिकांतभाई : शरणागति तो संपूर्ण होती हैं न ? आंशिक शरणागति कैसे हो सकती हैं ? पूज्यश्री : ऐसा नहीं हैं। जीव स्वयं की योग्यता के अनुसार शरणागति स्वीकारते हैं । संपूर्ण शरणागति बहुत दूर की चीज हैं। ज्यों ज्यों भक्त भगवान की शरण स्वीकारता जाता हैं, त्यों त्यों वह भगवान की शक्ति का अनुभव करता जाता हैं, स्वयं के अंदर रागादि को मंद होते देखते जाता हैं, चित्तमें प्रसन्नता बढ रही हैं, उसकी उसे भी प्रतीति होती जाती हैं । चित्तमें प्रसन्नता का संबंध रागादि की मंदता के साथ हैं । रागादि की मंदता का संबंध शरणागति के साथ हैं । भगवान तत्त्वदर्शन देकर शरण देते हैं । भगवान का तत्त्व पाया हुआ जीव इस लिए ही भयंकर व्याधि के बीच भी समाधिमें मग्न होता हैं, भगवान आपके हृदयमें तत्त्वज्ञान की स्थापना करके शरण देते हैं, हाथ पकड़कर नहीं । , शुश्रूषा आदि बुद्धि के आठ गुणों से ही भगवान का तत्त्व पा सकते हैं । भगवान का तत्त्वज्ञान आप दूसरों को देते रहो । भक्त का यही काम होता हैं : भगवान के पास लेता रहता हैं और जिज्ञासुओं को देता रहता हैं । बुद्धि के आठ गुण यों ही नहीं मिलते, महापुण्योदय से मिलते हैं । बुद्धि का एकेक गुण मिलता जाता हैं और अनंत-अनंत पाप के परमाणुओं का विगम होता जाता हैं, इस प्रकार आगमपुरुष कहते हैं, ऐसा हरिभद्रसूरिजी यहाँ कहते हैं । * संस्कृत पर गुजराती टब्बाओंवाली (अनुवादवाली) कृतियां बहुत होगी, लेकिन गुजराती कृति पर संस्कृत टीका हो वैसा एक ही ग्रंथ हैं : 'द्रव्य-गुण-पर्यायनो रास ।' 'जैनोमें कोई विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ नहीं हैं । जैन साधुमात्र रास ही गाते हैं ।' जैनेतरोंने दिये हुए आक्षेपों के जवाबमें यह ग्रंथ पू.उपा.श्री यशोविजयजीने बनाया था । * मोहनीय, ज्ञानावरणीय आदि चारों घाती कर्मों का विगम होता हैं, तब बुद्धि के आठ गुण मिलते हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ४0mmooooooooooooooooo १९१)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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