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से संपूर्ण निष्क्रिय हैं । फिर भी भोजनने ही तृप्ति दी ऐसा हम नहीं मानते ? पानीने ही प्यास बुझाई, ऐसा नहीं मानते ? भोजन और पानी बगैरहमें निमित्त की महत्ता स्वीकारते हैं, मात्र भगवानमें इस बात का स्वीकार नहीं करते हैं । भगवान भले स्वयं की तरफ से निष्क्रिय हैं, फिर भी हमारे लिए यही मुख्य हैं। भोजन के बिना पत्थर इत्यादि से भूख नहीं मिटा सकते । पानी के बिना पेट्रोल आदि से प्यास बुझा नहीं सकते । भगवान के बिना आप अन्यसे अभय आदि नहीं प्राप्त कर सकते ।
* शरणागति अद्भुत पदार्थ हैं । गुरु के पास केवलज्ञान न हो फिर भी उनकी शरणमें आया हुआ केवलज्ञान प्राप्त कर सकता हैं । छद्मस्थ गौतमस्वामी के ५० हजार शिष्य केवलज्ञान प्राप्त कर चूके थे । गुरु की शरण भी इतना सामर्थ्य धारण करती हो तो भगवान की शरण क्या नहीं कर सकती ?
आप कहेंगे : तो फिर भगवान की शरणमें रहे हुए गौतमस्वामीने स्वयं केवलज्ञान क्यों नहीं पाया ?
गौतमस्वामी को भगवान की भक्ति ही इतनी मीठी लगी थी कि उनको केवलज्ञान की कुछ पड़ी ही नहीं थी । 'मुक्ति थी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी ।' इस पंक्ति के वे जीवंत दृष्टांत थे । स्वयं के जीवन से शायद हमारे जैसे को वे ऐसा समझाना चाहते हैं : आप गुरुभक्ति के पीछे सब कुछ गौण करें । एक गुरुभक्ति होगी तो सब कुछ मिल जायेगा ।
* भगवान भयभीत प्राणीको अभय आदि देनेवाले हैं । बाहर के भयों से ही नहीं, अंदर के राग-द्वेष आदि से जीव बहुत परेशान हैं । बाहर के भय हैरान नहीं कर सकते, यदि अंदर राग-द्वेष न हो । राग-द्वेषादि ही मुख्य विह्वल करनेवाले परिबल हैं । जिसके ये खतम हो गये या मंद हो गये वे तो चाहे जैसे प्रसंगमें अभय रहते हैं, चाहे जैसी घटनामें स्वस्थ रहते हैं । मृत्यु से भी उसे भय नहीं होता । आनंदघनजी की तरह वह बोल सकता हैं : 'अब हम अमर भये न मरेंगे ।'
जितने अंशमें भगवान की शरणागति आती जाये, उतने अंशमें हम रागादि परिबलों से मुक्त होते जाते हैं ।
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कहे कलापूर्णसूरि - ४