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________________ भी बज जाते । ऐसे तत्त्वचिंतक को कभी राग-द्वेष नहीं होते, व्याधिमें असमाधि नहीं होती । अंतिम समयमें उन्हें भयंकर पीड़ा हुई थी, पर कहीं ऊह ऐसा भी नहीं या चेहरे पर वेदना का कोई चिह्न नहीं । पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. को अंतिम समयमें भयंकर पीड़ा थी, पर तत्त्वचिंतक थे न ? इसलिए ही व्याधिमें समाधि रख सके। बिमारीमें उन्होंने पिंडवाड़ा से आधोई चातुर्मासमें (वि.सं. २०३३) पंत्र लिखा था । उस पत्र में उन्होंने लिखा था : पीड़ा अपार हैं, किंतु मन 'उपयोगो लक्षणम्' के चिंतनमें रहता हैं । अनुप्रेक्षा (स्वाध्याय का ४था प्रकार) द्वारा चिंतन-शक्ति प्रकट होती हैं । हर पदार्थ की अनुप्रेक्षा करो तो ही वह भावित बनता हैं । स्वाध्याय के अंतिम दो प्रकार (अनुप्रेक्षा और धर्मकथा) उपयोग के बिना कभी हो नहीं सकते । वाचना आदि तीनमें उपयोग न हो वह फिर भी बन सकता हैं, लेकिन उपयोग के बिना अनुप्रेक्षा या धर्मकथा हो ही नहीं सकते । ___ भगवान ऐसे तत्त्वचिंतन का दान करके राग-द्वेषमय संसारमें आपको शरण देते हैं ।। तत्त्वद्रष्टा कभी राग के प्रसंगमें रागी या द्वेष के प्रसंगमें द्वेषी नहीं बनता । चाहे जैसी घटनामें आत्मस्वभाव से चलित नहीं ही बनता । इस तत्त्वचिंतन के लिए यहाँ 'विविदिषा' शब्द का प्रयोग हुआ हैं । * मुझे अनेकबार अनुभव हैं : कोई शास्त्र-पंक्ति नहीं बैठती हो तो मैं स्थापनाचार्य को भावपूर्वक वंदन करके बैठता हूं। चित्त स्वस्थ बनता हैं । और उपर से करुणा बरसती हो वैसा लगता हैं । कठिन लगती पंक्ति तुरंत ही बैठ जाती हैं। बहुमानपूर्वक पढा हुआ हो तो ही पंक्ति का रहस्य हाथमें आता हैं। * विविदिषा याने तत्त्वचिंतन की तीव्र इच्छा ! जिज्ञासा। यह होती हैं तब शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊह-अपोह और तत्त्व का अभिनिवेश (आग्रह) बुद्धि के आठ गुण प्रकट होते हैं । ऊह याने समन्वय अथवा सामान्य ज्ञान । अपोह याने व्यतिरेक अथवा विशेष ज्ञान । (१८८ 0wwwwwwwwwwwwwwood कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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