________________
वि.सं. २०५०, मद्रास
२२-१०-२०००, रविवार कार्तिक कृष्णा १०
( १८ ) सरणदयाणं ।
भयसे व्याकुल बने हुए को भगवान आश्वासन देते हैं । जीव भयभीत हैं उसका कारण अंदर पड़े हुये राग-द्वेष के संस्कार हैं । भगवान ही इस राग-द्वेष का शमन कर सकते हैं ।
भय से आर्त्त (पीडित) जीवों का त्राण करना वह शरण हैं । शरण मतलब आश्वासन ।
'चिन्ता मत कर । तेरा रोग मिट जायेगा ।' डॉकटर के इतने वाक्य मात्र से दर्दी को आश्वासन मिलता हैं, उसी तरह भगवान हमारे भाव रोग के लिए आश्वासन देते हैं । हम सब दर्दी ही हैं न ? इस संसारमें नरकादिरूप दुःख की परंपरा हैं, राग-द्वेष रूप संक्लेश हैं । भगवान इन सबमें से मुक्त बनाते हैं ।
भगवान कोई हाथ पकड़कर शरण नहीं देते, पर आपके हृदयमें तत्त्वचिंतन देते हैं । तत्त्वचिंतन जिसे मिल गया, वह कभी राग-द्वेष से दुःखी नहीं बनेगा ।
फ्लोदी के फूलचंदजी झाबक ऐसे तत्त्वचिंतक श्रावक थे । चतुर्दशी जैसे दिनोंमें रात को पौषध करते तब रात के एक-दो
कहे कलापूर्णसूरि ४ wwww
A❀AAAA.
कक १८७