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* हरिभद्रसूरिजी यहाँ लिखते हैं : अन्य (अजैन) योगाचार्य भी मार्ग की (प्रशम भाव की) यह बात अन्य शब्दोंमें स्वीकारते हैं । उनके शब्द ये रहे : 'प्रवृत्ति, पराक्रम, जय, आनंद और ऋतंभरा ।' * पंजिकाकार मुनिचंद्रसूरिजीने हरिभद्रसूरिजी के भावों को बहुत ही सुंदर ढंग से खोले हैं । स्व-अनुभव के बिना ऐसे भाव खोल नहीं सकते ।
करण,
षोडशकमें प्रणिधान, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि और विनियोग - ये पांच आशय बताये हुए हैं । इस संदर्भमें इन्हें याद करने जैसा हैं । सम्यग्दर्शन से पूर्व तीन करण हैं । यथाप्रवृत्ि अनिवृत्तिकरण और अपूर्वकरण । अनिवृत्तिकरण के समय जगत के सभी जीवों का आनंद एक समान होता हैं, ऐसा मुझे याद हैं । कुछ भूल नहीं हो रही हैं न मेरी ?
पू. भाग्येशविजयजी : आपको तो भगवान भूल कराते ही नहीं । पूज्यश्री : वृद्धावस्था हैं । स्मृतिमें गड़बड़ भी हो सकती हैं । कुछ भूल हो तो यें ।
* प्रवृत्तिमें अपूर्वकरणादि, पराक्रममें प्रवृत्ति के बाद का कार्य, वीर्योल्लास द्वारा अपूर्वकरण से आगे की भूमिका, जयमें विघ्नजय, आनंदमें सम्यग्-दर्शन की प्राप्ति का आनंद, ऋतंभरामें सम्यग् दर्शन पूर्वक भगवान की पूजा इत्यादि का समावेश कर सकते हैं ।
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आपकी तरफ से भेजी पुस्तक 'कहे कलापूर्णसूरि' मिल गयी हैं । पुस्तक भेजने के बदल आपका खूब खूब आभार । कई समय से पुस्तक प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे, बल्कि प्राप्त नहीं हो सकती थी, जो आपकी कृपा से हमें मिल गई हैं ।
महासती राजकोट
कहे कलापूर्णसूरि ४