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ही हैं । नजदीक होने पर भी दूर हैं, यदि बहुमान न हो ।
ऐसे गणधर भगवंतोंने भगवान को निकटता से देखे हैं, अनुभव किया हैं । और उन्होंने जो सूत्र बनाये है, उनके द्वारा भगवान की महिमा हमें जानने को मिलती हैं ।
भगवान के प्रति ज्यों ही बहुमान हमारे हृदयमें जगा त्यों ही हमारे हृदयमें भगवान की शक्ति सक्रिय हुई समझें ।
(१७) मग्गदयाणं । चित्तमें प्रशम भाव उत्पन्न हो तो ही समझें : हम मार्ग पर
इस चारित्र के द्वारा प्रशम भाव न मिला तो क्या मिला ? भोजन भूख मिटाने के लिए हैं । भोजन से भूख ही न मिटे तो भोजन का क्या मतलब ?
रोटी - सब्जी - दाल - चावल के नाम लेने मात्र से पेट भर नहीं जाता । संथारा पोरसी इत्यादि मात्र बोलने के लिए नहीं हैं । मात्र बोलने से नहीं, उसे भावित बनाने से हृदयमें प्रशम भाव उत्पन्न होता हैं ।
सानुबंध क्षयोपशम से मिला हुआ प्रशम भाव ही टिक सकता हैं, नहीं तो चला भी जाता हैं । सानुबंधमें चेतना निरंतर ऊर्ध्वारोहण के मार्ग पर होती हैं । निरनुबंधमें चेतना अटक जाती हैं । अटक जाये तब ऊर्वारोहण प्राप्त करती हुई चेतना नीचे जाती हैं । यह नियम हैं । पक्का व्यापारी लाख रूपये कमाता हैं, फिर उन्हें कम नहीं करता, उसमें वृद्धि ही करता रहता हैं । व्यापारी की यह कला इस अर्थमें हमें सिखने जैसी हैं ।
कमठ का मरुभूति के प्रति गुस्सा सानुबंध था । इसलिए ही १० भव तक चला । दोषों का अनुबंध तो प्रत्येक भव का हैं । अब हमें गुणों का अनुबंध बनाना हैं ।
जिस दोष के लिए पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त नहीं होता वह दोष सानुबंध बनता हैं । जिस गुण के लिए पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त होता हो वह गुण सानुबंध नहीं बनता ।
क्लिष्ट कर्म का बंध न हो, वह सानुबंध न बन जाय उसकी हमें नित्य हृदयपूर्वक संभाल लेनी हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ४0omsooooooooooooooon १८५)