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________________ वि.सं. २०४६, भस्डीया - कच्छ २१-१०-२०००, शनिवार कार्तिक कृष्णा - ९ * अरिहंत की मैं इसलिए प्रशंसा नहीं करता कि मेरे देव हैं । मैं मेरे गुरु की इसलिए प्रशंसा नहीं करता हूं कि वे मेरे गुरु हैं । मेरे गुरु हैं, इसलिए गुरु की प्रशंसा करने में अहं का ही पोषण हैं । क्योंकि उसमें गुरु की महत्ता नहीं हैं, अहं की महत्ता हैं । मैं महान हूं इसलिए मेरे गुरु महान हैं, ऐसा इससे सूचित होता हैं । गौतमस्वामी स्वयं के जीवन द्वारा हम सबको ऐसा कह रहे हैं : मैं तो अभिमान से भरा हुआ एक पामर कीड़ा था। मुझे विनयमूर्ति बनानेवाले, मुझे अंतर्मुहूर्तमें द्वादशांगी रचने का बल देनेवाले भगवान हैं । मेरे भगवान हैं, इसलिए प्रशंसा नहीं करता, पर वास्तविकता ही मैं आपको बताता हूं । गौतमस्वामी के हृदयमें भगवान के प्रति अपार बहुमान था। जिन के हृदयमें भगवान के प्रति बहुमान हैं, उनको भगवान का कभी विरह पड़ता ही नहीं हैं । ___ 'दरस्थोऽपि समीपस्थो, यो यस्य हृदये स्थितः ।' जो जिसके हृदयमें हो वह उसके लिए दूर होने पर भी नजदीक (१८४o comsoooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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