SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसलिए ही तो यशोविजयजी जैसे भगवान को प्रार्थना करते हैं : भगवन् ! आपके पास तो अनंत गुणों को खजाना हैं । एक भी गुण मुझे दे दो तो एतराज क्या हैं ? इसमें विचारना क्या ? सागरमें से एक भी रत्न लेते क्या खामी आती हैं ? सागरमें तो फिर भी कम होते हैं, पर यहाँ तो कम होने का सवाल ही नहीं । यह इसलिए कहता हूं : आप एकमात्र भगवान को पकड़ो । भगवान को कह दो : 'देशो तो तुमही भलुं, बीजा तो नवि याचुं रे ।' उपा. यशोविजयजी भगवन् ! आपको छोड़कर मुझे दूसरे कहीं से कुछ मांगना ही नहीं हैं । इसके अलावा दूसरा क्या करने जैसा हैं ? हम तो ऐसी प्रवृत्तिमें जिंदगी पूरी करते हैं : जिस से लोगों से प्रशंसा मिला करे । अब मैं आपको पूछता हूं : लोगों से प्रशंसा हो तो अच्छा या निंदा हो तो अच्छा ? आपकी प्रशंसा हो तो आपका यश नामकर्म खपता हैं । आपकी निंदा हो तो आपका अपयश नामकर्म खपता हैं । अब कहो : क्या अच्छा ? हमारी जिंदगी की समग्र प्रवृत्तिओं का केन्द्र लोकरंजन नहीं हैं न ? लोकरंजन नहीं, लोकनाथ (भगवान) का रंजन करो । १७६ - 'कह्युं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक प्राप्त हुई । अभी तो हाथमें ही ली हैं परंतु, First Impression is last Impression प्रथम दृष्टिमें ही प्रभाविक हैं । - गणि राजयशविजय सोमवार पेठ, पुना ॐ कहे कलापूर्णसूरि - ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy