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इसलिए ही तो यशोविजयजी जैसे भगवान को प्रार्थना करते
हैं :
भगवन् ! आपके पास तो अनंत गुणों को खजाना हैं । एक भी गुण मुझे दे दो तो एतराज क्या हैं ? इसमें विचारना क्या ? सागरमें से एक भी रत्न लेते क्या खामी आती हैं ?
सागरमें तो फिर भी कम होते हैं, पर यहाँ तो कम होने का सवाल ही नहीं ।
यह इसलिए कहता हूं : आप एकमात्र भगवान को पकड़ो । भगवान को कह दो :
'देशो तो तुमही भलुं, बीजा तो नवि याचुं रे ।'
उपा. यशोविजयजी भगवन् ! आपको छोड़कर मुझे दूसरे कहीं से कुछ मांगना ही नहीं हैं । इसके अलावा दूसरा क्या करने जैसा हैं ?
हम तो ऐसी प्रवृत्तिमें जिंदगी पूरी करते हैं : जिस से लोगों से प्रशंसा मिला करे ।
अब मैं आपको पूछता हूं : लोगों से प्रशंसा हो तो अच्छा या निंदा हो तो अच्छा ?
आपकी प्रशंसा हो तो आपका यश नामकर्म खपता हैं । आपकी निंदा हो तो आपका अपयश नामकर्म खपता हैं । अब कहो : क्या अच्छा ?
हमारी जिंदगी की समग्र प्रवृत्तिओं का केन्द्र लोकरंजन नहीं हैं न ? लोकरंजन नहीं, लोकनाथ (भगवान) का रंजन करो ।
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'कह्युं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक प्राप्त हुई । अभी
तो हाथमें ही ली हैं परंतु,
First Impression is last Impression
प्रथम दृष्टिमें ही प्रभाविक हैं ।
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गणि राजयशविजय सोमवार पेठ, पुना
ॐ कहे कलापूर्णसूरि - ४