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हो तो गुणका प्रकर्ष चाहिए ।
ये चार भगवानमें हैं, इसलिए ही भगवान अभय दे सकते हैं। पू. हरिभद्रसूरिजी यहाँ स्पष्टरूप से कहते हैं : भगवद्भ्य एव सिद्धिरिति । इसके उपर पंजिकाकार श्री मुनिचंद्रसूरिजी लिखते हैं : 'भगवद्भ्य एव, न स्वतः नापि अन्येभ्यः' अर्थात् स्व से भी नहीं या पर से भी नहीं, भगवान के पास से ही अभय की प्राप्ति होती हैं ।
* जौहरी की चाहे जितनी प्रशंसा करो वह कोई ज्वेलरी आपको नहीं देता, पर भगवान इतने दयालु हैं कि आप मात्र उनके गुणों का गान करो और ये गुण भगवान आपको दे देते हैं । जिस गुण को हृदय से चाहो वह गुण आपका हो जाता हैं ।
पंचसूत्रमें आराधना का क्रम इस तरह हैं : शरणागति, दुष्कृत गर्हा और सुकृत अनुमोदना ।
किंतु एक अहंकार एक भी गुण को आने नहीं देता । अहंकारी न शरण स्वीकार सकता हैं, न स्वदुष्कृतों की गर्दा कर सकता हैं, न पर-गुणों की अनुमोदना कर सकता हैं ।
'दुर्योधन को कोई गुणी दिखाई न दिया, युधिष्ठिर को कोई दोषी दिखाई न दिया । लगता हैं : अभी भी हमारी आंख दुर्योधन की ही हैं। कोई गुणी दिखता ही नहीं। फिर किसकी अनुमोदना ? खुद का एक भी दोष दिखता ही नहीं । फिर किसकी गरे ?
खुदमें गुण हो तो ही दूसरे को दे सकते हैं । एक भी दोष हो वहाँ तक चैन नहीं पड़ना चाहिए ।
धीरे धीरे गुणों को प्राप्त करते रहो । एक साथ गुण नहीं मिलेंगे । गृहस्थ जैसे धीरे-धीरे धन प्राप्त करता हैं, उसी तरह गुण प्राप्त करते रहो । जो जो गुण चाहिये उस उस गुण को देखकर खुश होते रहो । जिस गुण को देखकर आप खुश हुए वह गुण आपका हो गया ।
कहीं भी आप गुण देखो, आखिर इसका मूल भगवानमें दिखेगा । सर्व गुणों पर एकमात्र भगवान की मालिकी हैं । एक कंपनी का माल आप किसी भी दुकानमें से लो, पर आखिर वह माल उसी ही कंपनी का न ? दुकान का माल तो कम होता हैं, पर यहाँ गुण तो जैसे देते जाओ वैसे बढ़ते जायेंगे । (कहे कलापूर्णसूरि - ४omasoom masswooooo १७५)