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________________ वढवाण, वि.सं. २०४७ १९-१०-२०००, गुरुवार कार्तिक कृष्णा - ७ । * हमारी सामायिक आजीवन हैं । इसका अर्थ यह हुआ : जीवनभर समता रहनी चाहिए । समता हमारी श्वास बननी चाहिए । श्वास के बिना नहीं चलता तो समता के बिना कैसे चलेगा ? यही मुनिजीवन का प्राण हैं । श्रावक तो सामायिक पूरी कर लेता हैं, फिर शायद समतामें न रहे तो फिर भी चलेगा, साधु समतामें न रहे वह कैसे चलेगा ? 'मैं आत्मा हूं' इतना नित्य याद रहे तो ही समता नित्य रह सकती हैं । पर आश्चर्य हैं : दूसरा सब कछ याद रखनेवाले हम आत्मा को ही भूल गये हैं । बारात में दुल्हे को ही हम भूल गये हैं । जैसा वर्तन हम हमारे साथ करते हैं, वैसा ही वर्तन जगत के सर्व जीवों के साथ करना हैं । * भगवान सर्व जीवों को समान रूप से गिनते हैं। भगवान के यहाँ कोई मेरे-तेरे का भेद नहीं हैं । सर्व जन्तुसमस्याऽस्य न परात्मविभागिता । - योगसार कहे कलापूर्णसूरि - ४665555555 5 5 १७७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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