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________________ हमारा मोक्ष दूसरे कोई नहीं अटकाते, भगवान और गुरु के प्रति हमारा अबहुमान - भाव ही अटकाता हैं। यह ग्रंथ पढकर मात्र पूरा करना नहीं हैं, पर जीवनमें उतारना हैं । इस दृष्टि से पढ़ें और सुनें । * भव-निर्वेद (विषय-वैराग्य) भगवान के बहुमान से ही प्रकट होता हैं । भगवान के प्रति बहुमान भाव जगा हुआ तब कह सकते हैं जब विषय विष जैसे लगे, विषय नीरस लगे, स्वादहीन लगे, भगवान ही एक मात्र रसाधिराज लगे । मोहनीय आदि के क्षयोपशम के बिना भगवान के प्रति बहुमान भाव प्रकट नहीं होता । शम-संवेग इत्यादि सम्यग्-दर्शन के लक्षण हैं, लेकिन संघ पर वात्सल्य, गुणी के ऊपर बहुमान आदि कार्य हैं । सम्यग्दृष्टि जहाँ गुण देखता हैं, वहीं झुकता हैं । खुद के राई जितने दोष को पहाड़ जितना मानता हैं । ___ 'थोडलो पण गुण परतणो, सांभळी हर्ष मन आण रे; दोष-लव पण निज देखतां, निर्गुण निज आतमा जाण रे ।' - उपा. यशोविजयजी, अमृतवेली सज्झाय हम इससे विपरीत करते हैं । मोक्षप्रापक धर्म कैसे संभवित बनेगा ? जीवों का अज्ञान क्या हैं ? पूज्यश्री : सर्वज्ञ का वचन न जाने वह अज्ञान अथवा उसके अलावा सर्व व्यवहार-ज्ञान वह अज्ञान। उससे व्यवहार चलता है, लेकिन मोह नष्ट नहीं होता । उपयोगमें मोह का मिलन वह अज्ञान । ज्ञान से मोह नष्ट होता हैं । - सुनंदाबहन वोरा कहे कलापूर्णसूरि - ४omomoooooooooooooooo १६९)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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