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________________ आपके घड़े से ज्यादा ग्रहण कर नहीं सकते । * 'उप्पन्नेइ वा विगएइ वा धुवेइ वा' इस त्रिपदीमें समस्त द्वादशांगी छिपी हुई हैं । द्रव्य और पर्यायमें पूरा जगत आ गया । यह त्रिपदी ध्यानकी माता हैं । गणधर भगवंत इस परसे द्वादशांगीकी रचना करते हैं। हमें समझाने के लिए गुरुको कितनी महेनत पड़ती हैं ? गणधर कितने ऊंचे प्रकार के शिष्यत्व को प्राप्त किये होंगे कि मात्र तीन प्रदक्षिणामें ही काम हो गया । गुरु को ज्यादा तकलीफ नहीं दी । तीन प्रदक्षिणा मंगलरूप हैं । इसलिए ही विहार करते या प्रवेश करते तीन प्रदक्षिणा देने का विधान हैं । भगवान की तरह गुरु को भी (स्थापनाचार्य को) हम प्रदक्षिणा देते हैं । * चौदह पूर्वधर भी सभी समान नहीं होते । उनमें भी परस्पर दर्शन (बोध) भेद (छ स्थानवाला) होता हैं । द्रष्टामें भेद पड़ते दर्शनमें भेद पड़ता हैं । __ इस तरह गणधरों को भगवान सूर्य की तरह प्रकाश देते हैं। भगवान की यह परार्थ संपदा हैं । (१५) अभयदयाणं * अभय देनेवाले एक मात्र भगवान ही हैं । यहां मिलते पाठ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं, हमारी साधना के लिए बहुत ही उपयोगी हैं । भगवान बोधि देते हैं उसके पहले अभय, चक्षु, मार्ग और शरण ये चार देते हैं । बोधि कोई इतना सस्ता नहीं हैं । बोधि प्राप्त करने से पहले ये चार प्राप्त करने पड़ते हैं । दीक्षा (आज मिलती) फिर भी सस्ती हैं, बोधि सस्ता नहीं हैं । __भगवान के बहुमान से ही अभय आदि मिलने के कारण वह देनेवाले भगवान ही कहे जाते हैं । बहुत से लोग ऐसे होते हैं : 'गुरुदेव ! आपका नाम लेता हूं और काम हो जाता हैं । यह सब आपका ही हैं। ऐसे लोग बहुमान के द्वारा प्राप्त कर लेते हैं । प्राप्त कर लेने के बाद जिनके बहुमान से मिला उसे ही वे दाता मानते हैं । (१६८00wooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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