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________________ गुरुवंदना १६-१०-२०००, सोमवार कार्तिक कृष्णा - ३ ललित विस्तरा वाचना का पुनः प्रारंभ * (१४) लोगपज्जोअगराणं _प्रभु के ग्रंथ सुनते हृदयमें ज्ञान-प्रकाश फैलता हैं । ज्ञान बढते श्रद्धा बढती हैं । श्रद्धा अर्थात् रुचि । रुचि प्रबल बनने पर वीर्यशक्ति प्रबल बनती हैं । अतः बहुत कर्मों की निर्जरा होती हैं । जो कर्म बरसों तक नहीं जाते, वे कर्म प्रबल वीर्योल्लाससे एक क्षणमें साफ हो जाते हैं । आत्मप्रदेश जैसी सीट कर्मों को मिली हैं। वे जल्दी कैसे छोड़ेंगे? इसके लिए प्रबल ध्यानानल चाहिए, प्रबल वीर्योल्लास चाहिए । तो ही कर्म आत्मप्रदेशों की सीट को छोड़ेंगे । फिर, उस समय आप कछुए की तरह गुप्त रहो, संवर करो तो ही नये कर्म आते अटकते हैं । * भगवान भव्य जीवों के लिए सूर्य की तरह प्रकाश देते हैं, अन्य को दीपककी तरह प्रकाश देते हैं । इसमें पक्षपात नहीं करते, पर ग्रहण करनेवाले अपनी योग्यता के अनुसार ही ग्रहण कर सकते हैं, वह बताना हैं । तालाब पूरा भरा होने पर भी आप (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 65 66 6 6 6 6 6 6 6 6 १६७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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