SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ध्यान विचार उत्तरार्ध : चिन्ता : भावना और अनुप्रेक्षा के बिना चंचल चित्त वह चिन्ता । उसके ७ प्रकार हैं । प्रथम कक्षामें ध्यान के लिए चिंतन ही चाहिए । चिंतन से ही ध्यान की पूर्ण भूमिका का निर्माण होता हैं ।। * ७ चिंता : (१) तत्त्वचिंता, (२) मिथ्यात्व - सास्वादन - मिश्रदृष्टि गृहस्थरूप, (३) क्रिया - अक्रिया - अज्ञान - विनयवादी आदि ३६३ पाखंडीओं की विचारणा, (४) पासत्थादि, (५) चार गति के सम्यग्दृष्टि की विचारणा, (६) मनुष्य देशविरतों की विचारणा, (७) ७वें गुणस्थानक से १४वें गुणस्थानक तक तथा सिद्धों की विचारणा । चिंतन जितने उच्च प्रकार का उतना वीर्योल्लास ज्यादा । * योगमें जाने की इच्छावाले को निष्काम कर्म साधन हैं । परंतु योग की सिद्धि प्राप्त किये हुए के लिए तो 'शम' ही मोक्ष का कारण हैं । - भगवद्-गीता, ६/३ * भावना याने पुनः पुनः अभ्यास । उसके चार प्रकार हैं । ज्ञान - दर्शन - चारित्र और वैराग्य भावना ।। गणि मुनिचंद्रविजय : ज्ञानाचार आदि और ज्ञानभावना आदि, दोनोंमें क्या अंतर हैं ? पूज्यश्री : ऐसे देखें तो कुछ अंतर नहीं हैं । दूसरी तरह देखे तो कुछ अंतर भी है । बोलो, रोटी और पूड़ीमें क्या अंतर ? ऐसा ही अंतर यहां समझें । (१) ज्ञान भावना : सूत्र - अर्थ - तदुभय - तीन प्रकार से । (२) दर्शन भावना : आज्ञारुचि, नवतत्त्वरुचि, परमतत्त्व (२४) रुचि । (३) चारित्र भावना : सर्वविरत, देशविरत, अविरत सम्यग्दृष्टि । अनंतानुबंधी के क्षय या उपशम के बिना चौथा गुणस्थानक नहीं मिलता । इसलिए अविरत सम्यग्दृष्टि को भी यहां (चारित्र भावनामें) समाये हैं। अनंतानुबंधी चारित्र मोहनीय कर्म का भेद हैं। (४) वैराग्य भावना : अनादि संसारमें भ्रमण का चिंतन, विषय-वैमुख्य और शरीर की अशुचिताका चिंतन । (कहे कलापूर्णसूरि - ४Booooooooooooooooooo १६५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy