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________________ नैगम नयः चंचल मनके दर्शन, व्यवहार नय : विधिपूर्वक के दर्शन, ऋजुसूत्र नय : मन-वचन-काया की स्थिरतापूर्वक के दर्शन, (यहां तक सम्यग् दर्शन नहीं हैं ।) शब्दनय : प्रभुकी आत्मसंपत्ति प्रकट करने की इच्छापूर्वक के दर्शन, समभिरूढनयः केवलज्ञानी का दर्शन, एवंभूत नयः सिद्धों के दर्शन को ही दर्शन मानता हैं । * भगवान को आप समर्पित बनो तो बाकी का भगवान संभाल लेते हैं । समर्पित बनना ही कठिन हैं । सब पासमें रखकर मात्र 'जिन तेरे चरण की शरण ग्रहं' ऐसा बोलने से समर्पण नहीं आता । समर्पण के लिए सबका विसर्जन करना पड़ता हैं । अहं का विसर्जन सबसे कठिन हैं । अहं के विसर्जनपूर्वक जो भक्त भगवान की शरणमें जाता हैं, उसका भगवान सब कुछ संभाल लेते हैं । समर्पणभाव तो हमें ही पैदा करना पड़ता हैं । वह कोई भगवान नहीं कर देते । बीज किसान बोता हैं, पानी, कृषि इत्यादि भी किसान करता हैं, जब यहां हमें करना हैं । सब भगवान पर छोड़कर निष्क्रिय नहीं बनना हैं । * नामादि चार भवसागरमें सेतु समान हैं । उस सेतुको आप पकड़कर रखो, बीचमें से छोड़ो नहीं तो भवसागर से पार करने की जवाबदारी भगवान की हैं । * समवसरणमें बैठे हुए भगवान भले भावनिक्षेप से भगवान कहे जाते हैं, लेकिन दर्शनार्थी के लिए तो तब ही लाभदायी बनता हैं, जब वह प्रभु की आत्म-संपत्ति को (भाव आर्हन्त्यको) देखता हैं । मात्र अष्ट प्रातिहार्य या समवसरण की संपदा तो अंबड़ परिव्राजक जैसे भी बना सकते हैं । कहे कलापूर्णसूरि -४00oooooooooooooooooo १६३)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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