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मन को विश्वव्यापी बनाकर फिर अत्यंत सूक्ष्म बनाकर आत्मामें लीन करना है, पर यह कहने में जितना सरल लगता हैं, उतना करना आसान नहीं हैं ।
जिसका ध्यान धरते हैं उस-मय बन जाते हैं । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम ही हैं । जड़का ( देहका ) ध्यान करने से देहमय नहीं बन गये ? अब प्रभुका ध्यान धरेंगे तो प्रभुमय बन नहीं सकेंगे ? पुद्गलमें से प्रेमको खींचकर परमात्मामें प्रेम जोड़ना यही प्रथम कर्तव्य हैं । हमारे प्रेम के बिंदु को प्रभु के प्रेम-सिंधुमें विलीन कर देना हैं ।
हैं ।
( २० ) परम मात्रा ध्यान :
परम मात्रा ध्यानमें २४ वलयों से आत्मा को वेष्टित करनी
यह २४ वलयों का ही परिवार हैं ।
पांच वलय तो अक्षर के लिए हैं । माता-पिता उपकारी हैं । इसलिए उनके भी वलय हैं। मां का प्रेम ज्यादा होता हैं, इसलिए माताका वलय सर्वप्रथम हैं । माता में वात्सल्य की पराकाष्ठा होती हैं । माता के प्रति संतान को कितना पूज्यभाव हो ? वह भी सीखना हैं ।
(१) शुभाक्षर वलय : आज्ञा विचयादि धर्मध्यान के भेदों के २३ तथा 'पृथक्त्व वितर्कसविचार' ये १० अक्षर, कुल ३३ अक्षरों का न्यास (स्थापना) करना ।
पहले से ही अनक्षरमें नहीं, अक्षर से ही अनक्षरमें जा सकते हैं । पहले से ही अनक्षर तो एकेन्द्रियमें भी हैं । मनकी शक्ति मिली हैं, वह नष्ट करने के लिए नहीं, लेकिन इसकी शक्तिको इस तरह शुभमें लाकर शुद्धमें स्थापित करनी हैं ।
( २ ) अनक्षर वलय :
'ऊससियं निस्ससिअं, निच्छूढं खासिअं च छीअं च । निस्सिंघिअमणुसारं, अणक्खरं छेलिआईअं ॥'
आवश्यक निर्युक्ति गा. २०
इन ३५ अक्षरों की स्थापना करें । इशारे इत्यादि करना वह भी अनक्षर होने पर भी श्रुत ही हैं ।
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१८४७ कहे कलापूर्णसूरि- ४