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पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५७, मार्ग शु. ५
११-१०-२०००, बुधवार
अश्विन शुक्ला - १३
दोपहर ४.०० पू. देवचंद्रजी - स्तवन ,
स्तवन - पांचवां * अभी विशिष्ट ज्ञान लुप्त क्यों हो गया हैं ? क्योंकि वैसी गभीरता आदि योग्यता लुप्त हो गई हैं । थोड़ा ज्ञान मिलता हैं और हम उतावले हो जाते हैं । यदि अयोग्य अवस्थामें ज्यादा ज्ञान मिले तो हमारी क्या हालत हो ? दूसरों के दोष देखने में, दूसरे की टीका-टिप्पणी करने में ही हमारा समय पूरा हो जाये ।
* ज्यों ज्यों भक्ति बढती जाती हैं त्यों त्यों साधना की पंक्तियां खुलती जाती हैं, साधना के अनुकूल नये-नये अर्थ निकलते जाते हैं।
यह मैं आपको नहीं समझाता, मेरी आत्मा को ही मैं समझाता हूं। इसमें मुझे परेशानी या थकान नहीं लगती । यह तो मेरे जीवन का परम आनंद हैं ।
* आत्मा के असंख्य प्रदेश होने पर भी वे एक साथ एक ही काम कर सकते हैं । एक ही समय थोड़े प्रदेश अमुक (१४८ 05mmomo o ms कहे कलापूर्णसूरि - ४)