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________________ पालन से उत्कृष्ट भक्ति होती हैं । प्रीति और भक्ति के अनुष्ठान से वचन - अनुष्ठानमें आना हैं । पूज्य धुरंधरविजयजी म. : पू. कलापूर्णसूरिजीने भक्ति के विषयमें उपा. यशोविजयजी को याद किये, जो महान भक्त थे । पहले महान तार्किक थे । उनके ही उद्गारों को पूज्यश्रीने फरमाये । 'सारमेतन्मया लब्धम्' । प्रभु-भक्ति समस्त श्रुत सागर की अवगाहना का सार हैं । परम- आनंद की संपदा का मूल स्रोत हैं । सर्व प्रवृत्ति का हेतु आनंद ही हैं । आनंद सागर प्रभु की भक्ति के बिना आनंद नहीं ही मिल सकता । जो जहां होता हैं वहीं से प्राप्त करना पड़ता हैं। संसार से मुक्ति वही आनंद । संसारमें कोई आनंद मिल सकेगा नहीं । सांसारिक पदार्थों से आनंद नहीं मिलता । 'चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्युं ' - आनंदघनजी अंतमें बिखरनेवाले पदार्थ शोक ही देते हैं । पर इन्हीं पदार्थों को भगवान को समर्पित करो तो आनंद देते हैं । प्रभु-चरणमें समर्पित किये हुए पदार्थों को आनंद देने की फरज पड़ती हैं । भगवानने जो आगम दिये, उसमें हम डूबें, यही हमारी भक्ति । आप आपके द्रव्य को भगवान को सौंपो वही आपकी भक्ति । इसके द्वारा ही आनंद मिल सकता हैं । जो मिला हैं वह भगवान को सौंपीए । फल - नैवेद्य वगैरह सब कुछ | जिन चीजों को प्राप्त करने के लिए हम परतंत्र हैं वे चीजें भगवान को सौंपे तो उन चीजों के लिए दीन होना नहीं पड़ता । प्रभु जगत के वृक्ष का मूल हैं । इस मूल को अगर सिंचो तो फल प्राप्त किये बिना न रहो । प्रभु को जो कुछ समर्पित करते हो, वे सफल हुए बिना नहीं रहते । भावपूर्वक भक्ति करो तो वे समग्र प्रकृति (पवन, वायु, जल आदि) को बदल देते हैं । प्रभुमें डूबो । प्रभुमय बनो । प्रभु बनो । पूज्य हेमचंद्रसागरसूरिजी : क्या बोलूं ? बोलो । कृष्णने बहुत महेनत की, किसी भी तरह दुर्योधन समझ जाय और युद्ध अटके, पर यह नहीं हो सका । 'सुई के नोक जितनी भी जमीन मैं नहीं दूंगा' दुर्योधन के अंतिम जवाब से युद्ध हुआ ही । इस युद्धमें अंध धृतराष्ट्र दूर हैं । संजय को पूछता हैं : १३२ 60000 www कहे कलापूर्णसूरि ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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