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अभी ज्ञान हैं, पर संवेदन नहीं हैं ।
अभी ज्ञान लेते हैं वह देने के लिये, स्वयं के लिये नहीं । ऐसा उद्देश होने के कारण ही यह लागु नहीं पड़ता ।
इसलिए ही इन सिद्धांतों को सुनने के अधिकारी सम्यग्दृष्टि हैं । हमारी तकलीफ यह हैं कि सीधे ही सातवें (?) गुणस्थानक पर आ गये हैं । अभिमान का पारा एकदम ऊंचे चढ़ गया हैं । इसलिए ही साधना मुश्किल बनी हैं ।
समता के बिना कोई ध्यान लागू नहीं पड़ता । सामायिक के लिए चउविसत्थो आदि चाहिए । ऐसी बातें इसलिए करनी पड़ती हैं कि आप यह सब भूल न जायें ।
ज्ञानज्योति बढ़ती हैं वैसे गंभीरता बढती हैं । नहीं तो समझें : अज्ञान ही बढा हैं । जिससे मान बढें उसे ज्ञान कैसे कह सकते हैं ? आत्म-स्वभाव की रमणता न हो या राग-द्वेष की मंदता न हो उसे ज्ञान या दर्शन मानने के लिए यशोविजयजी तैयार नहीं हैं । मात्र वहां जानकारी होती हैं, ज्ञान की भ्रमणा होती हैं, सच्चा ज्ञान नहीं होता ।
आत्मा की अनुभूति होने के बाद कर्म का डर नहीं रहता । सिंहत्व पहचानने के बाद बकरे का या चरवाहे का भय नहीं रहता । 'गइ दीनता अब सबही हमारी '
उपा. यशोविजयजी साध्यालंबी बने बिना आत्मा साधनामें सक्रिय बन नहीं सकती । सम्यग्दर्शन मिल जाने के बाद चेतना आत्मतत्त्व की ओर मुड़ती हैं । इन्द्र चन्द्रादिपद रोग जाण्यो, शुद्ध निज शुद्धता धन पिछाण्यो; आत्मधन अन्य आपे न चोरे, कोण जग दीन वळी कोण जोरे ?
पू. देवचंद्रजी
इन्द्रत्व या चक्रवर्तित्व रोग के अलावा क्या हैं ? आत्म- धन दिखते ही यह रोग ही लगता हैं । आत्म-धन ऐसा हैं, जिसे कोई लूंट नहीं सकता, जो कभी कम नहीं हो सकता । यह मिलने के बाद दीनता कैसी ?
कहे कलापूर्णसूरि ४
छळ ११९