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________________ 'ज्योतिशं ज्योत मिलत जब ध्यावे, होवत नहीं तब न्यारा;' ऐसा ध्यान धरनेवाला भगवान को अलग नहीं गिन सकता । 'बांधी मूठी खुले भव माया, मिटे महा भ्रम भारा ।' बहिरात्मदशा दूर हुई, अंतरात्मदशा प्राप्त हुई । परमात्मदशा प्रकट होने पर बिंदु सिंधुमें मिल जाता हैं । फिर सिंधुमें बिंदु कहां दिखेगा? फिर 'मैं' मिट जाता हैं । यह तलाश करने से नहीं मिलता । घी ढल गया, पर खीचड़ी में । * प्रसन्नचन्द्र राजर्षि सूर्य के सामने अपलक नजर से देख रहे थे । यह तारक ध्यान हैं । उगते सूर्य का ध्यान आज भी धर सकते हैं । भगवान को गणधरोंने भी द्रव्यज्योति की उपमा दी हैं : चंदेसु निम्मलयरा । यह क्या हैं ? द्रव्य प्रकाश की उपमा के बिना हम कैसे समझ सकें ? यहां सभी द्रव्य, भावको समझने में सहायक बननेवाले हैं । भाव-उद्योत अर्थात् ज्ञान-उद्द्योत । भगवानका उद्द्योत सूर्य जैसा तो हमारा दीपक जैसा, पर हैं तो प्रकाश ही न ? लाख पावर का प्रकाश उनका हैं तो हमारा पांचका पावर हैं । हमारी दीपिका (छोटा दीपक) को केवलज्ञानकी महान्योति के साथ जोड़ दें तो काम हो जाय । क्षयोपशम भाव के गुण क्षायिक गुणोंमें जोड़ दें तो काम हो जाय । सिद्ध हमारे उपर सदा काल के लिए हैं । विहरमान भगवान सदाकाल के लिए हैं । मात्र हमें अनुसंधान करने की जरूरत हैं । एक आकाश प्रदेशमें अनंत आत्मप्रदेश होते हैं, ऐसा भगवतीमें अभी आया । इसमें भी ध्यान के रहस्य हैं । सिद्धशिलामें सिद्ध हैं उस तरह समग्र ब्रह्मांडमें भी अनंत जीव हैं । निश्चय से ये जीव भी सिद्ध-समान ही हैं । आतम सर्व समान, निधान महासुख कंद, सिद्धतणा साधर्मिक, सत्ताए गुणवृंद । ___- पू. देवचंद्रजी [११८ Booooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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