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________________ भगवान की साधना और सद्गुणों की याद आये, तो विचार आता हैं । हमारे जीवनमें ऐसा कब आयेगा ? * 'उपेत्य करणं करणं' जानकर प्रयत्न करना वह करण । करणमें पुरुषार्थ मुख्य हैं : इसका उत्कृष्ट उदाहरण तीर्थंकर भवनमें सहजता मुख्य हैं । इसका उत्कृष्ट उदाहरण मरुदेवी हैं । सहजतामें भी प्रभु और प्रभु का आलंबन तो हैं ही । पर वीर्योल्लास स्वयं प्रकट होता हैं । उस समय विकल्पजन्य ध्यान नहीं होता । मात्र आनंद की अनुभूति होती हैं । उत्कट वीर्योल्लास से आनंद की मात्रा बढी हुई होती हैं । धर्म- शुक्ल का प्रथम भेद ध्यान- परम ध्यानमें आ गया हैं । आगे के भेद दूसरे ध्यान के प्रकारोमें आते हैं । ये २४ ध्यान क्रमशः नहीं हैं, इसमें से कोई भी ध्यान के भेद से परमात्मा तक पहुंच सकते हैं । ज्योतिर्ध्यान के प्रयत्न से परम ज्योति मिलती हैं । परम ज्योति ध्यान समझने के लिये परम ज्योति पंचविंशिका ग्रंथ समझने जैसा हैं । जीवन्मुक्त महात्मा को यह होता हैं । वे जीते जी भी इसका अनुभव करते हैं । देह होने पर भी देहातीत, मन होने पर भी मनोतीत अवस्था इनकी होती हैं । तीनों योग होने पर भी जीवन्मुक्त तीनों से पर होता हैं । ऐसा योगी ही 'मोक्षोऽस्तु वा माऽस्तु' ऐसे कह सकता हैं । यह मोक्ष का आनंद यहीं पर प्राप्त कर सकते हैं । 'मुक्तिथी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी' ये परमज्योति दशा के उद्गार हैं । समाधि अवस्थामें उनको 'मैं प्रभु की गोदमें बैठा हूं ।' ऐसा अनुभव होता हैं । इस कालमें ऐसा अनुभव क्यों न प्राप्त करें ? सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना मरना नहीं हैं, इतना तय कर लो । इसे प्राप्त करने की रुचि उत्पन्न हो तो भी बड़ी बात हैं । ऐसा जानकर विराधना न करें, यह भी बड़ी सिद्धि होगी । कहे कलापूर्णसूरि ४ ०००० ११७ कळ
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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