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________________ नवकार गिन सकते थे । अक्षर कोइ रह न जाय, उपयोग अत्यंत तीक्ष्ण रूप से चलता ।। * अब बाकी रहा हुआ चिदानंदजी का पद देखें : काच शकल तज चिंतामणि लइ, कुमति कुटिलकुं सहज ठगीरी; व्यापक सकल स्वरूप लख्यो इम, जिम न भमे मग लहत खगीरी । 'चिदानंद' आनंद मूरति निरख, प्रेमभर बुद्धि थगीरी । (७) ज्योति ध्यान सूर्य-चन्द्र वगैरह द्रव्य ज्योति हैं । ध्यानाभ्यास से लीन बने हुए मनवाले को त्रिकाल विषयक ज्ञान वह भाव-ज्योति हैं । द्रव्य ज्योति का ध्यान भाव ज्योति के ध्यानमें आलंबनभूत बनता हैं । * स्वयं के पास पूंजी न हो तो दूसरों के पास से लोन लेकर आदमी व्यापार करता हैं उसी तरह जहां तक शुद्ध आत्मा प्रकट न हो वहां तक प्रभु - शक्ति प्राप्त करके साधना करनी __ आगमेनाऽनुमानेन योगाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रल्पयन् प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तमम् ॥ आगम, अनुमान और योग के अभ्यास का रस - इन तीन उपायों से प्रज्ञा को परिकर्मित बनानी हैं । ___ मान सरोवर का हंस गंदे पानीमें मुंह नहीं डालता, वह मोती चुगता है, उसी तरह साधक-ज्ञानी संसार के व्यावहारिक प्रयोजन करने पड़े तो ही करते हैं, परंतु उसे प्राधान्य नहीं देते, परंतु ज्ञानी के मार्ग पर चलते हैं, जिनाज्ञा को अनुसरते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४00000000000000000 ११३
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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