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से बोलते हो या तैयार करके बोलते हो, वह तुरंत ही पता चल जाता हैं । बहुत ऐसे वक्ता देखे हैं : १५ मिनिट होते ही रुक जाते हैं । अंदर की टेप पूरी हो गई न ?
पू. पंन्यासजी महा. पूछते : व्याख्यान के बाद ऐसा होता हैं कि ऐसे बोले होते तो अच्छा ?
'नहींजी । कुछ ऐसा नहीं होता ।' 'कोई पूर्व तैयारी करते हो ?' 'भगवान को समर्पित बनकर बोलता हूं।' पू. धुरंधरविजयजी म. : यहां भगवान ही नहीं आते । पूज्यश्री : माईक यों ही पड़ा हैं । बोलनेवाला कोई नहीं । पू. धुरंधरविजयजी म. : बिजली चली गई हैं । देखो, आनंदघनजी कहते हैं :
'तुज-मुज अंतर-अंतर भांजशे, वाजशे मंगल तूर; जीव सरोवर अतिशय वाधशे रे, आनंदघन रसपूर ।' पू. धुरंधरविजयजी म. : यहां जीव सरोवर क्यों लिखा ?
पूज्यश्री : सब बताता हूं । पर पहले आप भगवान के साथ संधान करने के लिए तैयार हो तो ।
पू. धुरंधरविजयजी म. : भगवान संधान करेंगे न ? पूज्यश्री : आपको संधान करना पड़ेगा न ? पू. पंन्यासजी महाराजने कम प्रयत्न किये हैं ?
* 'वाजशे मंगल तूर' यह अनाहत नाद हैं । संगीत साधनों से रहित 'अंदर का संगीत' ।
परमकला अर्थात् अंदर अनेक बाजे बजते हो और उसमें सब पहचान सकते हैं ।
* यह अनाहत, कला, बिंदु, वगैरह भी माईलस्टोन हैं । मंझिल मिल जाने पर तो मात्र दो ही रहते हैं : आत्मा और परमात्मा । सचमुच तो दो भी नहीं रहते, आत्मा और परमात्मा एक ही हो जाते हैं ।
जीव सरोवर अर्थात् समतामय आत्मा !
* पू. पंन्यासजी म. का उपयोग इतना तीक्ष्ण था कि १० मिनिटमें एक हजार लोगस्स गिन सकते थे । एक श्वासमें १०८
(११२ Wommonomooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)