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कोइम्बत्तूर चातुर्मास प्रवेश, वि.सं. २०५२
५-१०-२०००, गुरुवार __ अश्विन शुक्ला - ८
दोपहर ४.०० बजे : पू. देवचंद्रजी की चोवीसी
* हरिभद्रसूरिजीने प्रीति भक्ति आदि चार अनुष्ठान बताये हैं । उसका अनुसरण करके देवचंद्रजी आदि महात्माओने चोवीसी का प्रथम स्तवन प्रीति विषयक ही बनाया हैं ।
हम सबकी तरफ से पू. देवचंद्रजी का सवाल हैं : दूर रहे हए भगवान के साथ प्रीति करनी कैसे ? बातचीत के बिना तो प्रेम हो ही कैसे सकता हैं ?
बातचीत न हो, पत्र न लिख सकें, किसी संदेशवाहक को भेज न सके, ऐसे व्यक्ति के साथ प्रीति हो ही कैसे सकती हैं ?
रागी के साथ रागी की प्रीति लौकिक हैं, परंतु अरागी के साथ प्रीति लोकोत्तर हैं, यही यहां करनी हैं ।
श्रेणिक के खून के एकेक बूंदमें भगवान थे । वीर... वीर.. वीर का रटण था । यह लोकोत्तर प्रीति हैं ।
मैत्री आदि चार से द्वेष का जय होता हैं, किंतु राग का जय करना हो तो राग ही चाहिए । कांटे से कांटा निकलता हैं, उसी तरह वीतराग के राग से ही राग को निकाल सकते हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४ STA ssose.
CANA १०५)