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________________ समाधिमें बैठ गये । देखनेवाले को मृतदेह ही लगे । दूसरों को अंदर नहीं जाने देने से अगीतार्थोंने राजा को फ़रियाद की : हमारे आचार्य को इस आगंतुकने मार डाले हैं । राजा स्वयं आया । अतः अंगूठा दबाने पर आचार्यश्री समाधिमें से बाहर आये । ऐसी भी कलाएं हमारे पास थी । एक मुनि राणकपुरमें कुंडलिनी साधना करने गये तो पागल हो गये । इसीलिए आलतु-फालतु बाबाजी को पकड़कर इसमें पड़ना मत । इस सब सिरफोड़ीमें पड़ने से अच्छा है कि भगवान को पकड लें। भगवान के मोह का क्षय हो गया हैं । इनका आश्रय लेनेवाले के मोह का क्षय होता ही हैं । __ अक्षय पद दीये प्रेम जे, प्रभुनुं ते अनुभव रूप रे; अक्षर स्वर गोचर नहीं, ए तो अकल अमाप अरूप रे... अक्षर थोड़ा गुण घणा, सज्जनना ते न लखाय रे वाचक 'जस' कहे प्रेमथी, पण मनमांहे परखाय रे... _ - पू. उपा. यशोविजयजी । - 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक का पठन शुरु किया । हैं । बहुत ही आनंद आता हैं । पठन आगे बढता हैं त्यों त्यों प्रसन्नतामें वृद्धि होती हैं । ऐसी अच्छी-उत्तम पुस्तक भेजने के लिए आपके पास मेरा नम्र कृतज्ञताभाव व्यक्त करता हूं। परमात्मा को अक्षर-देह देकर, इन अक्षरों को मोक्ष की पंक्तिमें बिठा दिये हैं । - ललितभाई राजकोट (१०४ nanmonaamannaooooo00 कहे कलापूर्णसूरि- ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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