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________________ राग दो प्रकार के हैं : प्रशस्त और अप्रशस्त । प्रशस्त राग मुक्ति का मार्ग हैं । सराग संयम से देवगति के आयुष्य का बंध होता हैं । दृष्टि राग ये तीन त्याज्य हैं, पर भक्ति राग काम स्नेह आदरणीय हैं । प्रभु के राग के बिना प्रभु के साथ संबंध नहीं होता । मैत्री का दूसरा पर्याय हैं : स्नेह परिणाम । - मैं तो वहां तक कहूंगा : वीतराग को भी प्रीति होती हैं। पन्नवणा सूत्रमें गौतमस्वामी के सवाल के जवाबमें भगवानने कहा हैं : 'हंता गोयमा' 'हंत' संमति सूचक अव्यय हैं । संमति सूचक प्रीति भगवान को भी होती हैं । सामाचारी प्रकरण ( उपा. यशो. वि. का) में आप यह देख सकते हो । इस पाठ को हमने लिखा भी हैं । पर नोट अभी पासमें नहीं हैं । प्रीति अनादि से हम करते ही हैं, पर वह विषभरी हैं । विषभरी प्रीति तोड़ने के लिए पर पदार्थों की प्रीति तोड़नी पड़ेगी । जो तोड़ता हैं वही भगवान के साथ प्रीति जोड़ सकता हैं । मुनि भाग्येश वि. : पहले जोड़नी या तोड़नी ? पूज्य श्री : दीक्षा के समय क्या किया ? दोनों साथ ही हुए न ? संसार छूटा और संयम मिला । दोनों साथ हुए । उसी तरह भगवान के साथ प्रीति जुड़ते ही संसार के प्रति निर्वेद जागृत होता हैं । दोनों अन्योन्य अनुस्यूत हैं । भगवान की सच्ची भक्ति वही हैं, जहां सांसारिक पदार्थों की आशंसा नहीं हैं । आशंसा हो वहां सच्ची भक्ति ही नहीं होती । (प्रभु की तस्वीरों को दिखाकर ।) मुनि भाग्येश वि. : आपके चारों तरफ भगवान हैं । पूज्य श्री : एक यहां (छाती पर हाथ रखकर ) भगवान नहीं हैं । यहां नहीं है तो कहीं नहीं हैं । मुनि भाग्येश वि. : आपको तो हैं ही, हमारे अंदर नहीं हैं । स्वयं को माध्यम बनाकर हम सबको पूज्यश्री कह रहे हैं । १०६ wwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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