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विकल्प और उपयोग एक नहीं हैं, इतना याद रखें । अध्यवसाय और उपयोग एक ही हैं, यह भी याद रखें । (४) परम शून्य ध्यान :
चित्त को त्रिभुवनव्यापी बनाकर उसके बाद एक सूक्ष्म परमाणु पर संकुचित बनाकर वहां से भी हटाकर आत्मामें स्थिर करना हैं ।
वास्तविक यह ध्यान १२वें गुणस्थानकमें आता हैं; जहां मोह का संपूर्ण क्षय हो गया हैं । किंतु यह सामर्थ्य एक ही क्षणमें पैदा नहीं हुआ । इसके पहले कितना ही पुरुषार्थ, अनेक जन्मों से हुआ हैं ।
* बिल्ली को कूदना हो तो पहले संकोच करना पड़ता हैं । उसी तरह मन को सूक्ष्म बनाना हो तो पहले विस्तृत बनाना पड़ता हैं । ___ द्रव्य-भाव से संकोच करना वही नमस्कार हैं । वचन-काया का संकोच सरल हैं, मन का संकोच करना कठिन हैं ।
पू.पं. भद्रंकर वि. महाराजने अपनी निर्मल प्रज्ञा और साधना से इन सब पदार्थों को बहुत ही सुंदर ढंग से खोले हैं । . पू.पं.म. के भाव-संकोच के २-३ उदाहरण देता हूं । द्रव्य से वृद्धि, गुण से एकता, पर्याय से तुल्यता ।।
वि.सं. २०२६, नवसारीमें यह बात समझमें न आते पूज्यश्री को पत्र के द्वारा पूछाया था ।
द्रव्य, गुण, पर्याय का स्वरूप पक्का करने के बाद यह समझमें आयेगा ।
गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ।
सहभाविनो गुणाः । क्रमभाविनः पर्यायाः ।
- तत्वार्थ । द्रव्य से वृद्धि : पांच परमेष्ठी द्रव्य से विशुद्ध और निर्मल हैं । तीनों काल के अरिहंत अनंत हैं । अरिहंत के ध्यान से द्रव्य की वृद्धि हुई न ? हमारा आत्मद्रव्य अनंत आत्मद्रव्य के साथ मिल जाते वृद्धि हुई न ? एक दीपक के साथ दूसरे अनेक दीपक मिलते प्रकाश की वृद्धि हुई न ? कहे कलापूर्णसूरि - ४00ooooooooooooooooo १०१)