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________________ (२) गुणों से एकता । भगवान के गुण कितने ? सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी; तास वर्गथी अनंतगणुं प्रभु-केवलज्ञान कहायजी । - पू. देवचंद्रजी । हमारे ज्ञेय के पदार्थ प्रभु के ज्ञान के पर्याय हैं । जगत के सर्व पदार्थ नास्तिरूप से हमारे अंदर हैं । भगवान के केवलज्ञान की अवगाहना कितनी ? आवश्यक - नियुक्ति - टीका में केवलज्ञान की अवगाहना लोकव्यापी बताई हैं। ऐसे चिंतन में पूर्वो के पूर्वो निकल जाते हैं। अभी भी केवली समुद्घात करते हैं। अभी भी हमारी आत्मा केवली से संपृक्त होती ही हैं । हर छ: महिने केवली सर्व जीवों को मिलने आते ही हैं । फिर भी हम जगते ही नहीं हैं। __ ऐसा ही मानो कि हर छः महिने विश्व का शुद्धिकरण करने के लिए वे पधारते हैं । संख्ययाऽनेकरूपोऽपि गुणतस्त्वेक एव सः ।। - योगसार भगवान संख्या से अनेक हैं, पर गुण से एक हैं । हमारे गुण प्रभुमें मिश्रित हुए वह एकता हो गई । पर्याय से तुल्यता : भगवान का और हमारा पर्याय वैसे भिन्न प्रशस्त भाव भक्ति : भगवान अष्टप्रातिहार्य युक्त हैं, ऐसा भाव। शुद्ध भाव भक्ति : भगवान क्षायिकभाव युक्त हैं, ऐसा भाव । प्रभु भले अनंत हैं । प्रभुता एक हैं । उसमें लीन बनते तुल्यता प्रकट होती हैं । शुद्ध स्वभावमें लीन बनी हुई हमारी चेतना परम रसास्वाद प्राप्त करती हैं। भगवान भले पूर्ण बन गये, पर स्वयं की पूर्णता हमारे आलंबन के लिए रखकर गये हैं। गुण से प्रभु त्रिभुवन व्यापी हैं । गुण की दृष्टि से भगवान सर्वत्र सर्वदा उपस्थित हैं । केवलज्ञानेन विश्वव्यापकत्वात् । (१०२00wwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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