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आप भूमिका तैयार करो तो ध्यान की मांग पूरी करने, जरूरी वस्तु देने भगवान बंधे हुए हैं । भगवान योग - क्षेमंकर नाथ कहे गये हैं, उसका यही अर्थ होता हैं ।
मुनि धुरंधरविजयजी म. : जरूरी वस्तु कौन सी ? भगवान को लगे वह या हमको लगे वह ?
पूज्यश्री : हम तो अज्ञानी हैं, हमारे लिए हितकारी क्या हैं वह भी हम नहीं जानते हैं । इसलिए ही पंचसूत्रमें कहा हैं : मैं हित-अहित का जानकार बनूं ।
भगवान बहुत कसौटी करते हैं । इस कसौटीमें से पार हो जायें उसके बाद ही भगवान खुश होते हैं ।
दक्षिणमें बिमारी आई तब, मैं गुजरातमें आकर वाचना दूंगा - ऐसा कहां संभवित था ? भगवान को सब करवाना था न ? सब करवानेवाले भगवान बैठे हैं ।
* शून्य याने हम समझते हैं वैसा शून्य नहीं, परंतु उपयोग तो होगा ही, संपूर्ण जागृति तो होगी ही । ऐसे तो नींदमें या शराबपानमें भी शून्यता आती हैं, पर वह द्रव्य शून्यता हैं ।
इस शून्यता की अनुभूति शब्दातीत और मनोतीत हैं । ऐसा वर्णन कर सकते हैं ।
इसका आनंद लूटना हो तो पहले सविचार ध्यान करें। उसके बाद ही निर्विचारमें जाने का विचार करें । . * मन को अत्यंत संक्षिप्त बनाने के पहले त्रिभुवनव्यापी बनाना पड़ता हैं । केवली समुद्घात के ४थे समय का स्वरूप मनको त्रिभुवनव्यापी बनाने में उपयोगी हो सकता हैं । यह अनुभूत प्रक्रिया हैं । सर्वप्रथम यह अनुभव हुआ उस समय मैंने इसे शब्दस्थ भी किया । यह लेख मैंने पू. पंन्यासजी म. पर भेजा था । पश्चात् वह लेख पं. चंद्रशेखर वि. के पुस्तकमें प्रकाशित भी हुआ हैं । वह पढें ।
* प्रश्न : प्रार्थना और अपेक्षामें क्या अंतर ? पूज्यश्री : अशुभ भावों को पैदा करे वह अपेक्षा । शुभ भावों की वृद्धि करे वह प्रार्थना ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४wwwwwwwwwwwmmmmmmmmm ९९)