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________________ विचारों की मार खाकर अर्धमृत हुई आत्मा शून्यमें सरक जाती हैं वह द्रव्यशून्य । * मनको खींचना नहीं, बालक की तरह समझाना । खींचने से टूट जाता हैं । मन को चिन्मात्रमें विश्रान्ति देनी हैं । विचार हो वहां तक विश्रान्ति नहीं हैं । सच्चा विश्राम आत्मामें हैं । हम काया और वचन को विश्रान्ति देते हैं, मनको नहीं देते । ध्यानमें मनको विश्रान्ति देनी होती हैं । आत्मा के आत्मस्वरूप का निर्णय मात्र संवेदन रहे तब होता हैं। यतो वाचो निवर्तन्ते, न यत्र मनसो गतिः । शुद्धानुभवसंवेद्यं तद्पं परमात्मनः ॥ ऐसा यह प्रभु का स्वरूप हैं । मन के चारों प्रकारों (विक्षिप्त आदि)में से पसार होने के बाद ही निर्विकल्प दशा आती हैं । विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट और सुलीन - मनकी ये चार अवस्थाएं हैं । विक्षिप्त : याने चलचित्त । चंचलता हो वहां तक चिंतन करना, माला गिननी । फिर मन शांत हो तब ध्यान हो सकता हैं । मन को शांत बनाने के उपाय भक्ति, मैत्री आदि भावनाएं यातायात : याने स्थिर और अस्थिर । यातायात से थक जाने के बाद आज्ञाकारी बनकर मन आपकी बात माने वह सुश्लिष्ट अवस्था । सुलीन मन बन जाये तब परम आनंद होता हैं । उसके बाद शून्य बन सकता हैं । __ जैन दृष्टि से ध्यान प्राप्त करने के लिए अपार धैर्य चाहिए । विहित क्रिया छोड़नी तो नहीं ही, प्रस्तुत ज्यादा पुष्ट बनानी । ध्यान से यह सीखना हैं । पू.पं. भद्रंकर वि.म. खास करके कायोत्सर्ग की प्रक्रिया बताते, धुरंधर वि. को नवस्मरण गिनने को कहते । कक्षा के अनुरूप वे मार्ग बताते थे । कभी उन्होंने ध्यान की बात नहीं की । मेरे पास भी ध्यान की बात नहीं की । मैंने पूछा भी नहीं । (९८00mmmmmmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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