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उपा. महाराजने पकड़ा : 'प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूहं' यहां प्रत्याहार हैं। क्योंकि योगीओं को यमादि चार अंग सिद्ध ही होते हैं । प्राणायाम अपने आप. हो ही जाता हैं, अगर आप व्यवस्थित कायोत्सर्ग करते रहो ।
आर्त्त-रौद्र को हटाने के लिए शुभ विचारों को प्रवेश करवाइए । शुभ विचार मजबूत हो जाये, उसके बाद उनको दूर करते समय नहीं लगता ।
* मध्यमामें विकल्प होते हैं, पश्यन्ती मात्र संवित् रहती हैं । संवित् मतलब उपयोग । उपयोग के दो प्रकार : साकार निराकार ।
* मेरे पास आनंदघनजी आदि की चोबीशियां हैं, आगम के पाठों का ढेर नहीं हैं । यह मेरी मर्यादा हैं । 'निराकार अभेद संग्राहक, भेदग्राहक साकारो रे;
दर्शन ज्ञान दु भेद चेतना, वस्तु-ग्रहण व्यापारो रे ।'
पू. आनंदघनजी । १२वां स्तवन । मतिज्ञानमें मन का प्रयोग हैं, उस प्रकार चक्षु-दर्शन के अलावा अचक्षु-दर्शनमें भी मनका प्रयोग हैं। उस समय (निर्विकल्प दशामें) अचक्षु दर्शन होता हैं । आत्मा उपयोग लक्षण कभी नहीं छोड़ती हैं । अग्नि जलाने का नहीं छोड़ती, उस प्रकार आत्मा उपयोग कभी नहीं छोड़ती । विकल्प तो कार्य - चेतना के हैं, उपयोग ज्ञानचेतना का हैं ।
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'सुख-दुःख रूप कर्म-फल जाणो, निश्चे एक आनंदो रे;
चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचंदो रे ।'
पू. आनंदघनजी । १२वां स्तवन । गुण वे ही कहे जाते हैं जो साथमें रहते हैं । जो साथमें रहे उसे हम भूल जाते हैं । और साथमें नहीं रहनेवालों के साथ (दुर्विचारो) मैत्री करते हैं ।
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* पूर्यन्ते येन कृपणास्तदुपेक्षैव पूर्णता ।
कृपण लोग जिससे (भौतिक पदार्थों से) भरे जा सके उसकी उपेक्षा वही पूर्णता हैं ।
यहां आकर अगर ज्ञान, शिष्य, भक्त वगैरह से बड़ाई मानें तो हमारे अंदर और गृहस्थोंमें कोई फर्क नहीं ।
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१८८८ कहे कलापूर्णसूरि ४