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________________ गहन ग्रंथ समझने के लिए आज भी मेरी अनुभूति छोटी पड़ती हैं । अतः मैंने भोले भावसे लिखा हैं : किसी को कोई त्रुटि लगे तो बतायें । उसके बाद किसीने बताया नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ : किसीने गहराई से अध्ययन शायद नहीं किया हो । * योगप्रदीपमें निराकार शुक्लध्यान का वर्णन हुआ हैं, जिसके द्वारा सिद्धों के साथ मुलाकात हो सकती हैं । भले श्रेणिगत प्रथम पाया (शुक्लध्यान का) न मिल सके, पर उसका कुछ अंश आज भी सातवें गुणस्थानकमें मिल सकता हैं, ऐसा उपा. यशो. वि.म.ने योगविशिकामें कहा हैं । इस झलक को प्राप्त करने का मन नहीं होता ? योगप्रदीप की टीप पढ लेना । योगप्रदीप के कर्ता का नाम नहीं हैं । योगसार के कर्ता का नाम भी कहां मिलता हैं ? * सिद्धाचल पर हम द्रव्यसे जाते हैं । सिद्धाचल में मात्र पर्वत का नहीं, सिद्धों का ध्यान करना हैं । उसके द्वारा आत्मा का ध्यान करना हैं । गिरिराज की महत्ता इस पर सिद्ध हुए अनंत मुनिओं के शुभभाव पड़े हैं उसके कारण हैं । उसके पवित्र परमाणु यहां पर संगृहीत हुए हैं । इसका संस्पर्श करना हैं । * ग्रंथि का भेद न हों वहां तक सूक्ष्म पदार्थ समझमें नहीं आते । आपको यहां के पदार्थ समझमें नहीं आते हो तो समझें : अब तक ग्रंथि का भेद नहीं हुआ हैं । उपयोग रहता हैं, विचार नहीं रहते, ऐसी स्थिति हमें समझमें नहीं आती । क्योंकि वैसी अनुभूति नहीं हैं । * वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा - ये चार वाणी के प्रकार जानते होंगे । भगवान की वाणी उत्क्रम से आती हैं, परामें से पश्यन्ती होकर वैखरी (मध्यमा की भगवान को जरुरत नहीं हैं ।) के रूप में बाहर आती हैं । * सूक्ष्म मन को पकड़ने के लिए सूक्ष्म बोध चाहिए । मन पकड़ा जाय तो सूक्ष्म बोध से पकड़ा जाता हैं । - मन को वशमें करने के लिए योग का पांचवां अंग (प्रत्याहार) [कहे कलापूर्णसूरि - ४00000000000000000000 ९५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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