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________________ इंदरचंदजी 'नेताजी' पूज्यश्री के पास, वि.सं. २०५४, राजनांदगांव ४-१०-२०००, बुधवार अश्विन शुक्ला ७ * द्वादशांगी धारक श्री श्रमण संघका मिलन पूर्व के महापुण्योदय की निशानी हैं । पंचसूत्रमें इसके लिए प्रार्थना की हैं : होउ मे एएहिं संजोगो । प्रभु-शासन को जिसने प्राप्त किया हैं ऐसे का इस कालमें संयोग होना यह भाग्य की पराकाष्ठा मानें । प्रभु - मूर्ति मौन भगवान हैं । आगम बोलते भगवान हैं । भगवान इस तरह हमारे पास आकर मानो कह रहे हैं : आप मेरे जैसे बन सकते हो। क्यों नहीं बनते ? भगवान का विशेषण हैं : स्वतुल्यपदवीप्रदः । * यह ध्यानविचार ग्रंथ सबसे पहले पू.पं. श्री भद्रंकर वि.म. द्वारा मुझे मिला, तब मुझे लगा : साक्षात् भगवान मिले । गौतमस्वामी को भगवान मिले, मुझे ग्रंथ के रूपमें मिले हैं । भगवान को हम आधीन बने इतनी ही जरुरत हैं । उसके बाद आपके लिए आवश्यक सूत्र भी ध्यान के लिए उपयोगी बनेंगे । इस ध्यानविचार के वृत्तिकार कोई जिनभद्रगणि से भी प्राचीन होने चाहिए, ऐसा इसकी शैली देखकर तज्ज्ञों को मालूम होता हैं । ९४ wwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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