SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन को विचारों से रहित बनाना हैं, उपयोगरहित नहीं । पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी: विचार और उपयोगमें क्या अंतर हैं ? पूज्यश्री : बहुत बड़ा अंतर हैं । विचार याने विकल्प और उपयोग याने जागृति । हमारा उपयोग अन्य विचारों से रहित बने तो ही भगवान उस उपयोग में पधारते हैं । भगवान को हम सात राजलोक दूर या महाविदेहमें मानते हैं, अतः दिक्कत खड़ी हुई है । पर भगवान भक्ति को आधीन है। भक्ति का विमान आपके पास है, तो दूर रहे हुए भगवान को भी आप यहां बुला सकते हैं । भक्ति के लिए पर की प्रीति को प्रभु की प्रीतिमें ले जाना पड़ेगा । शरीर के नाम-रूप की प्रीति न छूटे तो भगवान की प्रीति कैसे जमेगी ? ऐसा प्रेमी भगवान के नाम को ही सर्वस्व गिनता हैं, अपना नाम प्रभु-नाममें डूबा देता हैं । अपना रूप प्रभु-रूपमें डूबा देता हैं । उपयोग भगवान को कब सौंप सकते हैं ? निर्विकल्प बनता हैं तब । हमारे उपयोगमें विकल्प भरे हुए हैं, इसीलिए ही प्रभुको सौंप नहीं सकते । विकल्प जायेंगे, उसके बाद ही प्रभु को सौंप सकेंगे । 'शब्द अध्यातम अर्थ सुणीने, निर्विकल्प आदरजो रे: शब्द अध्यातम भजना जाणी, हाण ग्रहण-मति धरजो रे ।' - पू. आनंदधनजी शब्द अध्यातम मतलब आगम । आगम का अभ्यास करके मनको निर्विकल्प बनाना हैं और वह प्रभु को सौंपना हैं। बाकी १४ पूर्वी भी विकल्प करके थक जाते हैं, विकल्पों का कहीं अंत नहीं हैं । आखिर निर्विकल्पमें ठहरना ही पड़ेगा। परंतु आप निर्विकल्प शब्द से किसी भी मार्गमें चले न हो जाओ इसीलिए ही बार बार सूचना देता हूं। विकल्प ध्यान को महत्त्व देता हूं। विकल्प और उपयोगमें क्या अंतर ? उस विषय पर विशेष अवसर पर । (कहे कलापूर्णसूरि - ४0000000000000000000000 ९३)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy