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यह एंगल सामने रखें : भगवान की वाणी भी कितनेक को पीघला नहीं सकती तो हम कौन ?
हम तो ऐसे साहुकार कि यहां का कुछ मुकाममें ले नहीं जाते । सभी यहीं झाड़ कर रख जाते हैं । खानेपीने का कुछ अटकता नहीं हैं । फिर यह सिरफोड़ी किस लिए ? 'पठितेनाऽपि मर्तव्यम्, अपठितेनाऽपि मर्तव्यम् । किं कण्ठशोषणं कर्तव्यम् ?' ऐसे जानकर ज्ञान से दूर नहीं भागना हैं, परंतु उसके लिये ज्यादा प्रयत्न करना हैं ।
* उपदेशमाला के मंगलाचरणमें ऋषभदेव को सूर्य और महावीरस्वामी को चक्षु कहे हैं । सूर्य आकाशमें हैं, परंतु आंख हमारे पास हैं, साथमें ही रहती हैं । ऐसा कभी बनता हैं कि आंख कहीं रह जाय और आप दूसरे कहीं पहुंच जाओ ? चश्मा रह जाय ऐसा फिर भी बनता हैं । परंतु आंख ? आंख तो चौबीसों घण्टे आपकी सेवामें उपस्थित हैं ।
अकेले सूर्य से नहीं चलता, आंख भी चाहिए । अकेली आंख से भी नहीं चलता, सूर्य भी चाहिए । भगवान हमारे लिए सूर्य ही नहीं बनते, आंख भी बनते हैं । भगवान जगत के चक्षु हो तो हमारे लिए वे चक्षु नहीं हैं ? हम जगतमें आ गये या नहीं ? ___ चक्षु की तरह भगवान हमेशा साथीदार बनकर रहते हैं, अगर हम रखें तो ।
सूयगडंग सूत्र की वीर स्तुतिमें, स्मृति दगा न देती हो तो भगवान का यह 'जगच्चक्षु' विशेषण दिया हैं ।
मैं तो यह विशेषण पढकर नाचा हूं।
* भगवान की भक्ति से ही विरति मिलती हैं । आपको चारित्र मिला हैं उसका कारण प्रभु-पूजा हैं । बचपनमें दीक्षा मिली हो तो पूर्व-जन्ममें प्रभु-पूजा-भक्ति बहुत हुई होगी, ऐसा अवश्य मानें । _ 'दीक्षा-केवलने अभिलाषे, नित-नित जिन-गुण गावे ।' ।
देव भी दीक्षा-केवल को पाने की इच्छा से प्रभु-भक्ति करते रहते हैं । ऐसा स्नात्र पूजामें पं. वीरविजयजी फरमाते हैं । (८२Wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)