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भगवान का यह विशिष्ट प्रभाव देखकर उसे ग्रहण करने का हमें मन होता हैं ।
* सम्यग्दृष्टि को जैसा भाव होता हैं, वैसा मिथ्यादृष्टि को नहीं होता । उसका कारण मिथ्यात्व के पुद्गल हैं। उन्हें घटाने का पुरुषार्थ करना हैं । 'सेवं भंते सेवं भंते' भगवती के प्रत्येक शतक के अंतमें आता यह पाठ भीतर सम्यग्दर्शन की सूचना करता हैं ।
भगवान व्यवहार से सभी के प्रदीप बनते हैं, किंतु निश्चय से तो सम्यग्दृष्टि संज्ञी जीवों के ही प्रदीप बनते हैं। भगवान का प्रभाव इससे कम नहीं होता । जीवों की योग्यता ही कम हैं । दुनियामें बहुत अंधे हैं, बहुत से उल्लू हैं, लेकिन उससे कोई सूर्य का प्रभाव घट नहीं जाता ।
भगवान इतने शक्तिशाली होने पर भी धर्मास्तिकाय या अधर्मास्तिकाय को जीव नहीं बना सकते । उससे कोई प्रभु शक्तिहीन नहीं गिने जाते । धर्मास्तिकाय आदिमें ऐसी योग्यता ही नहीं हैं। उसमें प्रभु क्या करेंगे ?
'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक के करीबन ८७५ पेज पढे हैं, किंतु... इसमें से बहुत जानने मिलता हैं, जाने हुए पर श्रद्धा बढती हैं, भक्ति की उमंग जागृत होती हैं । थोड़ा-थोड़ा पढकर उस पर विचार कर, बराबर समझकर, जीवनमें लाने का प्रयत्न करता हूं। आपश्री का खूब-खूब उपकार ।
- रायचंद
बेंगलोर
(कहे कलापूर्णसूरि - ४00aomoomooooooooooon ८३)