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"निंदा-स्तुति श्रवण सुणीने, हर्ष शोक नवि आणे; सो जोगीसर जगमें पूरा, नित चढते गुणठाणे ।'
- चिदानंदजी जिन इन्द्रियों का दुरुपयोग करते हैं वह इन्द्रिय भवांतरमें हमें नहीं मिलती । जैसे दूसरों के लिए धर्म दुर्लभ बनायें तो हमारे लिए ही धर्म दुर्लभ बन जाता हैं ।
इन इन्द्रियों का सदुपयोग कीजिए । कान से परप्रशंसा, जीभ से गुण की प्रशंसा, आंख से जिन-दर्शन करते रहें, जिससे भवांतरमें वे इन्द्रियां तो मिलेगी ही, साथमें अनासक्ति भी मिलेगी ।
यह वाचना आपके लिए ही नहीं देता । मैं मेरे लिये भी देता हूं। स्व-कल्याण का लक्ष्य पहले चाहिए । भगवान भी जबरदस्ती किसी को मोक्ष नहीं दे सकते । तो हम किस वाड़ी के मूले ?
शास्त्र याने भगवान की देशना की टेप ! गायक भले मृत्यु पा गया हो, परंतु आप उसका गीत टेप के द्वारा सुन सकते हो ।
* महेसाणामें पढे हुऐ प्रज्ञा चक्षु आणंदजी पंडितजी बुद्धिमान थे । एक बार कंठस्थ किया हुआ कभी भूलते नहीं थे । २०२५ वर्ष के बाद प्रतिक्रमणमें अजितशांति बोले तब पू. कनकसूरिजी वगैरह स्तब्ध हो गये थे । बुद्धि किसी के बाप की नहीं हैं । वि.सं. २०२० भुजपुर चातुर्मासमें छोटे दो मुनि (पू. कलाप्रभ-कल्पतरु वि.म.) को पढ़ाते हुए कहते : कुछ नहीं आता । बिलकुल ठोठ (बुद्धिहीन) ! ढबुके ढ ! ऐसे पंडितजी कच्छ के शोभारूप थे ।
अंधेके पास दीपक व्यर्थ हैं। उसी तरह मिथ्यात्वी के पास भगवान व्यर्थ हैं । दोष दीपक का नहीं, आंख नहीं हैं, उसका
हैं
।
दोष भगवान का नहीं, सम्यक्त्व नहीं हैं, उसका हैं । मेरी बात आप बहरे हो और सुनाई न दें तो मेरा दोष ? उल्लू को सूर्य दिखाई न दे उसमें सूर्य का दोष ?
समवसरणमें सभी को बोध नहीं होता। अभी भी नहीं होता । उसमें भगवान का दोष नहीं हैं। भगवान द्वारा भी सभी को बोध नहीं होता हो तो हमारी बात ही क्या ? कोई बोध न पाये तब (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 0000000000000 ८१)