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________________ लेखन मग्नता २९-९-२०००, शुक्रवार अश्विन शुक्ल - २ * भगवान योग-क्षेम अमुकका ही करते हैं, परंतु हित सभीका करते हैं । जीवका तो हित करते हैं, अजीवका भी हित करते हैं । यथावस्थित वस्तुका प्रतिपादन करने से अजीव का भी हित करते भगवान यथावस्थित दर्शनपूर्वक सम्यक् प्ररूपणा करते हैं । भावि को बाधा न पहुंचे, उस तरह भगवान प्ररूपणा करते हैं । जो जिसको यथार्थ रूपसे देखते हैं, तदनुरूप भावि अपाय दूर करनेपूर्वक वर्तते हैं, वह उसको वस्तुतः हितकर हैं । वनस्पति आदि स्थावरमें चेतना बताकर भगवान लोगों को उसकी हिंसासे बचाते हैं। एकेन्द्रिय जीवोंको पीड़ा से बचाते लौकिक पर्वोमें जीवोंका नाश होता हैं, लोकोत्तर पर्यों में जीवों को अभयदान होता हैं । छ कायका हित जिनविहित अनुष्ठानमें होता ही हैं । दूसरे व्रतका नाम मृषावाद-विरमण हैं, सत्य भाषण नहीं (७० 06gaaaaaao कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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