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धुल-मिल गया है । केवलज्ञान विनय का ही फल है । बीज में से वृक्ष बन जाने से बीज को नष्ट हुआ न समझे, बीज स्वयं वृक्ष बन गया । इस तरह से यहां विनय स्वयं केवलज्ञान आदि के रूप में परिवर्तित हो गया । मन, वचन, काया से तो हम संसारी विनय करते हैं, परन्तु वे तो आत्मा से सबका विनय करते
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आप वन्दन करो तो भी हम आचार्यगण आपको हमारे समान नहीं गिनते, परन्तु सिद्धों को तो कोई नमन करे या न करे, वे सबको अपने समान देखते हैं । वे सर्व जीवों को पूर्ण रूप से देखते हैं । क्या यह विनय नहीं है ?
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महावीर स्वामी में विनय अधिक था या गौतम स्वामी में विनय अधिक था ?
महावीर स्वामी ने जगत् के समस्त जीवों का विनय किया है । इसी कारण वे भगवान बन सके हैं ।
गौतम स्वामी को तो विनय का फल प्राप्त होना शेष है, जबकि महावीर स्वामी को विनय का फल प्राप्त हो गया है । * 'आचारांग' के लोकसार अध्ययन में लोक का सार चारित्र बताया गया है, क्योंकि उसमें दर्शन एवं ज्ञान दोनों आ चुके है । यही सच्चा चारित्र कहलाता है, परन्तु इसका सार भी विनय है । इसी लिए विनयहीन मुनि की प्रशंसा किसी महर्षि ने कभी भी नहीं की ।
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* जितना विनय कम होगा उतने प्रमाण में श्रद्धा एवं संवेग कम समझें । श्रद्धा - संवेग की वृद्धि, विनय की वृद्धि के साथ जुड़ी हुई है । मन्द श्रद्धा वाला व्यक्ति चारित्र की आराधना कैसे कर सकता है ?
विनय की वृद्धि से गुणों की वृद्धि होती है । अविनय की वृद्धि से दोषों की वृद्धि होगी ।
गुरु का विनय करने से उनमें विद्यमान गुणों का विनय होता है । गुणों का विनय होते ही वे गुण हमारे भीतर आने लगते हैं ।
(कहे कलापूर्णसूरि २wwww
कळ ७९