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प्राप्त कर लिया । यदि ऐसा होता तो पहले ही केवलज्ञान प्राप्त हो जाना चाहिये था, परन्तु भगवान मिलने के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ ।
वे एक हजार वर्षों तक 'ऋषभ - ऋषभ' जपती रही (चाहे वे पुत्र के रूप में ही जपती रही, लेकिन आखिर वे थे तो भगवान ही न ?) उससे भी निर्जरा हुई होगी न ? उन्होंने विरह की वेदना सहन की थी । प्रभु के साथ प्रत्येक सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है । पुत्र का सम्बन्ध भी जोड़ा जा सकता है । चौदह स्वप्नों के दर्शन से, मेरु पर्वत पर अभिषेक से मरुदेवी को इतना तो मालूम ही था कि मेरा ऋषभ भगवान बननेवाला है । पुत्र- प्रभु को गोद में लेकर बैठी माता स्नेह-दृष्टि पूर्वक अवलोकन करती है वैसा जो ध्यान विचार में मातृ-वलय का ध्यान आता है, उसमें यही बात सूचित होती है ।
* योग्यता भी भगवान ही प्रदान करते हैं, यह मान कर आप प्रभु को पुकारें ।
* प्रभु का महत्त्व प्रदर्शित करनेवाला 'ललितविस्तरा' के समान एक भी ग्रन्थ नहीं है । आप विशेष तौर से उसे पढ़ें । 'न स्वतः न परत: भगवत्सकाशादेव !' उसमें जोर देकर लिखा है कि स्व से भी नही, पर से भी नही, भगवान के पास से ही अभय - चक्षु - मार्ग आदि की प्राप्ति होती है ।
* तप तब ही सफल होता है जब उसके साथ क्षमा होती है । नियम तब ही सफल होता है यदि साथ में विनय हो । गुणों की तब ही प्रशंसा होगी जब विनय होगा ।
यदि विनय नहीं हो तो तप, नियम अथवा संसार के समस्त गुण मिल कर भी आपको मोक्ष में भेज सके, यद कदापि मत मानना । इसीलिए समस्त तीर्थंकरो ने विनय का ही उपदेश दिया है, विनय की बात पहले की है, दूसरी बात बाद में की है । उत्तराध्ययन का प्रथम अध्ययन ही विनय है । अरे ! कोई भी कार्य प्रारम्भ करना हो तो नवकार गिनना पडता है । नवकार विनय रूप है ।
(कहे कलापूर्णसूरि २ कwww
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