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में तथा देवेन्द्रसूरिजी में भी यह दृष्टिगोचर होता था, क्योंकि उन्होंने विनय-गुण सिद्ध किया हुआ था; जबकि हम सबने अविनय सिद्ध किया हुआ है। अनादिकालीन संस्कार हैं न? जितना 'मान' अधिक होगा उतना अविनय अधिक होगा ।
अभिमान अधिक होगा तो क्रोध अधिक होगा । अभिमान पर्दे के पीछे रह कर कार्य करता है, वह क्रोध को आगे करता
* श्रुतज्ञान में जो कुशल हो, हेतु-कारण एवं विधि का ज्ञाता हो, फिर भी अविनयी एवं गर्वयुक्त हो तो उसका यहां कोई मूल्य नहीं है । विनय के बिना कोई गुण सुशोभित नहीं होता, समस्त गुण एक के अंक के बिना के शून्य समझें ।
ज्ञान एवं चारित्र की शोभा विनय से ही है। विनय से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, यह कहने की अपेक्षा विनय स्वयं सम्यग्दर्शन है, यह कहें तो भी कोई आपत्ति नहीं है । विनय भक्ति रूप है, भक्ति सम्यग्-दर्शन है ।।
भगवान का साक्षात् दर्शन कराने की आंख गुरु के पास है। गुरु विनय से ही मिल सकते हैं, फलीभूत हो सकते हैं । योगशास्त्र के बारहवे प्रकाश को आप पढ़ कर देखें तो सदगुरु की करुणा का वर्णन देखने को मिलेगा ।
विनय के बिना तप-नियम आदि मोक्षप्रद नहीं बन सकते ।
* एक ओर चौदह पूर्वी हैं और दूसरी ओर एक आत्मा को जानने वाला है । आत्मा का ज्ञाता चौदह पूर्वी जितनी ही कर्म-निर्जरा कर सकता है। दोनों श्रुतकेवली गिने जाते हैं । चौदह पूर्वी भेद नय से और आत्मज्ञानी अभेद नय से श्रुतकेवली गिने जाते हैं । समयसार के ये पदार्थ मिथ्या नहीं है, लेकिन उसके अधिकारी अप्रमत्त मुनि हैं ।
पाटन में लाल वर्ण की प्रतिमा देखकर मैंने पूछा, 'क्या ये वासुपूज्य स्वामी भगवान हैं ?' पुजारी बोला, 'नहीं महाराज ! यह लाल रंग तो पर्दे के कारण प्रतीत होता है ।' पर्दा हटाते ही स्फटिक रत्न की प्रतिमा चमक उठी। हमारी आत्मा भी शुद्ध स्फटिक के समान ही है। कर्म रुपी पर्दे के कारण वह रागी-द्वेषी प्रतीत होती है।
(७४ 00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)