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क्यों ? यह भी कहा जा सकता है कि विनय स्वयं मोक्ष रूप है । 'गुरु विणओ मोक्खो' शास्त्र में भी कहा है ।
* किसी भी कार्य में प्रवृत्ति करो तो विघ्न तो आयेंगे ही । इस में भी शुभ कार्य में विशेषतः विघ्न आते हैं । आप विनय प्रारम्भ करो तो विघ्न आयेंगे ही। उन विघ्नों को पार करके यदि आप विनय की सिद्धि प्राप्त करलो तो विनय का निग्रह हुआ कहलायेगा । क्षमा आदि के गुणों के निग्रह के लिए भी यही समझें ।
ऐसे विनय का कदापि परित्याग न करें । जिस पल आप विनय का त्याग करते हैं, उस समय आप मोक्ष का मार्ग छोड़ देते हैं यह निश्चय समझें । इतना ध्यान में रखें कि अविनय से युक्त संपूर्ण समय हमें निरन्तर उन्मार्ग पर ले जाता हैं ।
* इस काल में हमारी बुद्धि कम है। अध्ययन की सामग्री बहुत है, पूरी पढी नहीं जाती । अध्ययन किया हुआ याद नहीं रहता तो फिर कर्म-निर्जरा किस प्रकार होगी ? यह चिन्ता न करें । अल्पश्रुत व्यक्ति भी विनय के द्वारा विपुल निर्जरा कर सकता है । चंडरुद्राचार्य के शिष्य तथा माषतुष मुनि इसके उदाहरण हैं ।
सिर पर दांडे की मार पड़ी फिर भी चंडरुद्राचार्य के शिष्य ने विनय गुण नहीं छोड़ा । यह विनय गुण की सिद्धि है । इस जन्म में भले ही उस सम्बन्ध में साधना नहीं प्रतीत होती, परन्तु पूर्वजन्म में वे निश्चित रूप से साधना करके आये होंगे ।
* शिष्य के दोष जानते हुए भी गुरु उसे नहीं कह सकते । यदि कहें तो मधुर शब्दों में ही कहते हैं । ऐसी स्थिति शिष्य में विनय के अभाव की सूचक है ।।
विनय करने में सर्वाधिक कष्ट वचन एवं काया को नहीं, परन्तु मन को होता है । मन में जो अहं ढूंस-ठूस कर भरा है, उस पर प्रहार होता है।
__ अविनय का संस्कार अनादिकालीन है । इस के कुसंस्कार शीघ्र नहीं जाते । अतः विनय के द्वारा अविनय के संस्कारों को जीतना है ।
* पूज्य देवचन्द्रजी ने सात उत्सर्ग भाव-सेवा और सात कहे कलापूर्णसूरि - २Bossessmanasome ess ७१)