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आज यह पद्धति लुप्त प्रायः हुई प्रतीत होती है। पू. देवेन्द्रसूरिजी को हमने देखे हैं । गोचरी करते समय वहां कोई नहीं हो तो भी वे बोलते - गोचरी का उपयोग करूं ?
* आत्मा नित्य है । देह, उपकरण आदि सब अनित्य हैं । ज्ञान, विनय आदि गुण नित्य हैं । गुण इतने वफादार हैं कि एक बार आप उन्हें आत्मसात् कर लो तो वे जन्मान्तर में भी आपका साथ नहीं छोडेंगे ।
जगत् में कोई आपका नहीं है । एक मात्र गुण ही आपके हैं । उनकी उपासना क्यों न करें ?
मुझे याद नहीं है कि गृहस्थ जीवन में कभी माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया हो या शिक्षकों की बात नहीं मानी हो अथवा कभी किसी का अपमान किया हो ।
चाचाजी के घर मकान का जब निर्माण हो रहा था तब चूने की भठ्ठी देख कर बचपन में लगा था कि - क्या संसार में रह कर ऐसे पाप करने ? ऐसा संसार नहीं चाहिये । (भगवान की कृपा से बड़े होने के बाद भी घर या दुकान की मरम्मत करने का अवसर नहीं आया ।)
ये गुण कहां से आये ? मैं कहीं सीखने नहीं गया था । पूर्वजन्म के संस्कार ही मानने पड़ते हैं ।
* कालज्ञ एवं समयज्ञ में क्या अन्तर है ? हेमन्त आदि ऋतु रूप काल को जानता है वह कालज्ञ है। प्रसंग, संयोग एवं अवसर को जानने वाला समयज्ञ है ।
* शिष्य में ये समस्त गुण हों, लेकिन उसमें अभिमान हो तो ऐसा शिष्य न बनायें, न रखें ।
नहीं हैं जन्म जैसा रोग नहीं है । इच्छा तुल्य दुःख नहीं है । सुख जैसा पाप नहीं है । स्नेह जैसा बन्धन नहीं है।
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