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सम्यग्-ज्ञान के अधीन है । सम्यग्-ज्ञान गुरु के अधीन है और गुरु विनय के अधीन है ।
इतना निश्चय करें - भाव-चारित्र प्राप्त किये बिना मरना नहीं है । अर्थात् किसी भी कीमत पर चारित्र प्राप्त करना ही है, तो ही जीवन सफल होगा ।
स्निग्ध देह वाला प्रायः गुणवान होता है। श्रीपाल कुष्ठ-रोगी होते हुए भी ऐसे ही लक्षणों से पूज्य मुनिचन्द्रसूरि ने उसे पहचान लिया था ।
गम्भीर एवं ऊंचा नाक उसकी सरलता बताता है ।
* जिन-शासन के अनुरागी को देव-गुरु अपने प्रतीत होते हैं - मेरे गुरु ! मेरे भगवान ! मेरा धर्म ! इस प्रकार हृदय पुकारता रहता है ।
* जिनालय में जिस प्रकार भगवान की ओर दृष्टि रहती है, उस प्रकार वाचना आदि के समय दृष्टि गुरु की ओर होनी चाहिये । गुरु की ओर देखने से ही उनका आशय समझ में आ सकता है।
* धर्म कब पालें ? यदि आप यह पूछते हों तो मैं पूछंगा कि भोजन कब करें ? पानी कब पिये ? सांस कब लें ? क्या इनका कोई नियम है ?
धर्म अपना सांस बनना चाहिये ।
* निर्विकल्प दशा-आत्मा का (घर का) घर । (शुक्ल ध्यान)
शुभ विकल्प - मित्र का घर । (धर्म ध्यान) अशुभ विकल्प - शत्रु का घर (आर्त्त ध्यान) दुष्ट विचार - शैतान का घर (रौद्र ध्यान) उपर्युक्त बातें पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज कहते थे ।
* अधिक परिचय करने से संकल्प - विकल्प बढ़ते रहते हैं । अतः 'योगसार' में अधिक परिचय करने का निषेध किया
अपने आवास - स्थान से कहीं बाहर जाना हो तब गुरुजी को पूछना चाहिये कि 'मैं जिनालय आदि जाता हूं।" (६६8
कहे कलापूर्णसूरि - २)