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पिटाराROIN aantaram Mindskand.....
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पंन्यास पद प्रसंग, सुरत, वि.सं. २०५५
२५-३-२०००, शनिवार चैत्र कृष्णा-५ : बाकरथली
भगवान महावीर के चतुर्विध संघ की संख्या सुन कर लगता है कि इतनी ही संख्या क्यों ? परन्तु ये सब नैश्चयिक (स्व गुण स्थानक में रहे हुए) समझें, तथा भगवान द्वारा प्रतिबोधित समझें । उनके शिष्यों के द्वारा प्रतिबोधित हों वह अलग ।
जब तक क्षायिकभाव न मिले तब तक क्षायोपशिक भावों की वृद्धि होनी चाहिये । अपुनर्बंधक होने के बाद ही यह सम्भव है। इसकी प्रतीति क्या ? बाह्य किसी पदार्थ के बिना ही उसे भीतर से स्वाद आता रहे वह ।
पू. हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ पढ़ने पर लगता है कि, 'चार, पांच अथवा छः गुणस्थानक की बात छोड़ो, अपुनर्बंधक अवस्था भी अत्यन्त दुर्लभ है । हमारी सद्गति या दुर्गति हमारे वेष पर नहीं, अन्तरंग परिणामो पर निर्भर हैं ।
* दीक्षा ग्रहण करना अर्थात् मोह के विरुद्ध खुला युद्ध छेड़ना । इसमें तनिक भी गफलत की तो गये ।।
* सेवा एवं विनय ऐसे गुण हैं जिनसे बिना परिश्रम किये सम्यग-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान आदि प्राप्त होते हैं । सम्यक् चारित्र,
(कहे कलापूर्णसूरि - २ 6000BOOooooooooooo ६५)