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का प्रिय हूं। मेरी बात गुरुजी मानेंगे ही ।" यह विचार भी उद्धता से पूर्ण है।
* गुरु से सात बार वाचना लेनी चाहिये । सात बार सुनने पर ही उक्त पदार्थ भावित बनता है, ठोस बनता है। प्राचीन समय में पुस्तकों के बिना केवल वाचना के द्वारा ही यह चलता था ।
कई बार मैं एक ही स्तवन बार-बार बोलता हूं। अनेक व्यक्ति विचार करते होंगे - 'एक ही स्तवन क्यों ?' परन्तु ज्यों ज्यों इन शब्दों को घोटते जाये, त्यों त्यों कर्ता का भाव अधिकाधिक स्पर्श करता रहता है । शब्द कर्ता के भावों के वाहक हैं ।
* शिष्य कैसा होता है ?
जाति, कुल, रूप, यौवन, वीर्य, समत्व, सत्त्व से युक्त, मृदुभाषी, अपिशुन (चुगली नहीं करने वाला), अशठ, नम्र, निर्लोभी, अखण्ड अंगोंवाला, अनुकूल, स्निग्ध एवं पुष्ट शरीर वाला, गम्भीर - उन्नतनासिकावाला, दीर्घदृष्टि, विशाल नेत्रोंवाला, जिनशासन-अनुरागी, गुरु के मुंह की ओर देखने वाला (उनका आशय समझने वाला), धीर, श्रद्धालु, अविकारी, विनयी, कालज्ञ, देशज्ञ, शील-रूप-विनय का ज्ञाता, लोभ-भय-मोह रहित और निद्रा-परिषह विजेता होता है। (चंदाविज्झय पयन्ना ४५ से ४८)
यहां रूपवान शिष्य किस लिये ?
रूपवान शासन-प्रभावक बन शकता है। काने, लंगड़े आदि अपलक्षण कहे गये हैं ।
कई शिष्य मधुर बोलते हैं, परन्तु इधर-उधर करते रहते हैं, दाढ में बोलते हैं । अतः कहा हैं चुगली नहीं करने वाला ।
जीवात्मा एवं परमात्मा राग आदि के विजेता परमात्मा, राग आदि से विजित जीवात्मा ।
(६४00mammooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - २)